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श्रावकोपयोगी श्रमणाचार
डॉ. दिलीप धींग
श्रमणाचार श्रमण-श्रमणियों की आत्म-साधना के लिए तो उपयोगी होता ही है, किन्तु श्रावक-श्राविकाओं के जीवनोत्थान में भी उसकी प्रेरक भूमिका होती है। पर्याप्त अंशों में एक श्रावक भी श्रमणधर्म को जीवन में अपनाकर आत्मोत्थान के साथ पर्यावरण सन्तुलन एवं मानव-समाज के हित में सहयोगी बनता है। डॉ. धींग ने कषायमुक्ति, षट्जीवनिकाय रक्षा एवं रात्रिभोजन-त्याग को आधार बनाकर श्रावकों के लिए एक आवश्यक आचार संहिता प्रस्तुत की है। -सम्पादक
जैन धर्म की सबसे बड़ी विशेषता उसका सुदृढ़ आचार-पक्ष है। जहाँ तक जैन श्रमणाचार की बात है, वह इतना सुदृढ़ है कि संसार के सभी धर्मों के संन्यासियों में जैन साधु-साध्वियों की अलग और विशिष्ट पहचान है। ऐसे श्रमण की उपासना करने वाले गृहस्थ श्रावक को श्रमणोपासक कहा गया है। श्रमण के उपासक श्रावक के लिए यह अभिप्रेत है कि वह श्रमणाचार से अनुप्रेरित होकर अपने श्रावकाचार को अधिक सुदृढ़ बनाए तथा पारिवारिक, सामाजिक और व्यावसायिक जीवन में श्रावकाचार
और श्रमणाचार की उपयोगिता को सार्थक करे। पाँच महाव्रत श्रमणाचार के मूलाधार हैं। इनके अलावा पाँच समिति, तीन गुप्ति, बारह प्रकार का श्रमण-धर्म, सतरह प्रकार का संयम, आहार विहार, दिनचर्या
आदि से सम्बन्धित अनेक बातें श्रमणाचार से जुड़ी हुई हैं। इस प्रकार श्रमणाचार के अनेक नियम, उपनियम, अंग और आयाम हैं। उनमें कषाय-मुक्ति, षट्जीवनिकाय की रक्षा और रात्रिभोजन त्याग का भी विशिष्ट स्थान है। इस लेख में श्रमणाचार की इन तीन विशेषताओं का स्वरूप बताते हुए उनका श्रावकाचार से सम्बन्ध तथा परिवार, समाज, संसार और पर्यावरण की दृष्टि से इनकी आवश्यकता, उपयोगिता और महत्ता बताई गई है। कषाय-मुक्ति की उपयोगिता
संसार और संसार की समस्याओं का मूल है 'कर्म' और 'कर्म'का मूल है - कषाय।' कषाय मानव को पतन के गर्त में गिरा देते हैं और लम्बे समय तक उसे वहीं रखते हैं। दशवैकालिक में कहा गया है - क्रोध, मान, माया व लोभ - ये चारों कषाय जीवन में पाप और सन्ताप बढ़ाते हैं। अपना भला चाहने वालों को इनका त्याग कर देना चाहिये। क्योंकि क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय को नष्ट करता है, कपट मित्रता का नाश करता है और लोभ सबका नाश कर देता है।' वात, पित्त आदि विकारों से मानव इतना उन्मत्त नहीं होता जितना
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319 वह कषायों से होता है। आचार्य भद्रबाहु कहते हैं - ऋण को थोड़ा, घाव को छोटा, आग को तनिक और कषायों को अल्प नहीं मानना चाहिये, क्योंकि ये थोड़े ही बहुत हो जाते हैं। जैन परम्परा के आचार पक्ष में कषाय-त्याग को मुख्य मानने से समाज में धार्मिक अन्धविश्वासों व कर्मकाण्डों पर चोट हुई। आचार्य हरिभद्र ने कहा - किसी पन्थ या वाद में मानव का कल्याण नहीं है, कल्याण तो कषायो को छोड़ने में हैं। इससे सामाजिक, धार्मिक व मानवीय एकता की राह प्रशस्त हुई। चारों कषायों का विवरण निम्नानुसार है - 1. क्रोध -प्रत्येक व्यक्ति शान्ति और सम्पन्नता की दिशा में आगे से आगे बढ़ना चाहता है। वह सम्पन्नता महज धन तक सीमित नहीं है। जीवन के सभी क्षेत्रों मे व्यक्तित्व का वैभव प्रकट होना चाहिये। ऐसे बहुआयामी वैभवशाली जीवन के लिए क्रोध का परित्याग मुख्य शर्त है। प्राचीन ग्रन्थ इसिभासियाई में कहा गया है -
कोहेण अप्पं डहती परं च, अत्थं च धम्मं च तहेव काम।
तिव्वं ये वेरं पिकरेंति कोधा, अधमं गतिं वा विउविंति कोहा।।' क्रोध से व्यक्ति स्वयं को जलाता है, दूसरो को जलाता है। वह धर्म, अर्थ और काम को जलाता है। तीव्र वैर कराने वाला क्रोध जीवन के पतन का भी कारण है। आचारांग में कहा गया है कि क्रोध आयु को नष्ट करता है। व्यक्ति स्वयं क्रोध नहीं करे, यह एक पक्ष है। साथ ही यह भी आवश्यक है कि वह दूसरों के क्रोध का निमित्त भी न बने। भगवती आराधना में क्रोध की हानियाँ बताते हुए कहा गया है कि क्रोधग्रस्त मानव का वर्ण नीला पड़ जाता है, वह हतप्रभ हो जाता है तथा उसका सौन्दर्य नष्ट हो जाता है। व्यग्रता और बेचैनी से उसे शीतकाल में भी प्यास लगने लग जाती है। क्रोध दुश्मन का अपकार करता है तथा परिवारजनों, मित्रों व अपनों के लिए समस्या का प्रत्यक्ष कारण बनता है।'
भगवतीसूत्र में क्रोध के दस नाम बताये गये हैं - (1) क्रोध, (2) कोप, (3) द्वेष : स्वयं पर अथवा दूसरों पर द्वेष करना। स्वयं पर द्वेष करते हुए व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है। कभी-कभी दूसरों से द्वेष करते हुए भी व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है। आत्महत्या कषाय का परिणाम है। इससे कौटुम्बिक और सामाजिक गौरव नष्ट होता है।, (4) रोष (नाराजगी), (5) संज्वलन (ईर्ष्या करना) : ईर्ष्या जीवन में वैर और अस्वस्थ-स्पर्धा बढ़ाती है।, (6) अक्षमा (गलती माफ नहीं करना), (7) कलह, (8) चण्डिक्य (क्रोध का बीभत्स रूप), (9) भण्डन : किसी पर हाथ उठाना या काया से अनुचित व्यवहार करना। (10) विवाद : अंट-शंट बोलना, झगड़ा कायम रखना और अनावश्यक बहस करना।
क्रोध विपन्नता और विपत्तियों को न्यौता देता है, जबकि अक्रोध से सम्पन्नता और सम्पत्ति में अभिवृद्धि होती है। क्रोध नहीं करने वाला अपनी अपरिमित प्राण ऊर्जा बचा लेता है। वह सहिष्णु, विवेकवान तथा विचारपूर्वक कार्य करने वाला होता है। वह क्षमावान, सर्वप्रिय, अच्छी निर्णय क्षमता वाला और दूरदर्शी होता है। वह हमेशा पारिवारिक/सामाजिक विग्रह और क्लेश से बचा रहता है।
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| 10 जनवरी 2011 | 2. मान -मान के वश हो व्यक्ति वैभव का अति प्रदर्शन करता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसा प्रदर्शन उचित नहीं है। मद में चूर व्यक्ति अपने वैभव-प्रदर्शन के सामाजिक दुष्प्रभावों की कोई चिन्ता नहीं करता है। भगवान महावीर अहंकार को अज्ञान का द्योतक मानते हैं। सूत्रकृतांग में वे व्यक्ति के जातीय और कौटुम्बिक अहंकार को अनुचित ठहराते हुए कहते हैं - "ऐसे अहंकार से कुछ भी नहीं होने वाला। ज्ञान और सदाचरण मनुष्य की श्रेष्ठता के प्रतीक हैं।""जो निरभिमानी है, वह ज्ञान, यश व सम्पत्ति प्राप्त करता है और अपना प्रत्येक कार्य सिद्ध करता है।"
भगवती सूत्र में मान के बारह नाम बताये गये हैं" - (1) मान, (2) मद, (3) दर्प, (4) स्तम्भ (5) गर्व, (6) अत्युक्रोश (आत्मा-प्रशंसा), (7) परपरिवाद, (8) उत्कर्ष : अपने वैभव का प्रदर्शन, (9) अपकर्ष : किसी को उसकी योग्यता से कम आंकना, (10) उन्नत नाम : सद्गुणों व गुणियों का अनादर करना, पैसे वालों का ही आदर करना, (11) उन्मत्त : दूसरों को निम्न समझना, (12) आधा-अधूरा झुकना।
आगम-ग्रन्थों में व्यक्ति के अहंकार पर चोट करने वाले अनेक प्रेरक कथानक हैं। धन, सत्ता, पद आदि का अहंकार करने वाला सामान्य व्यक्तियों की योग्यता, सलाह व स्नेह से वंचित रहता है। विनयवान व्यक्ति सद्गुणों और श्रेष्ठताओं को अर्जित करता है। 3. माया -कपट से विश्वसनीयता और मैत्री जैसे जीवन-मूल्य नष्ट हो जाते हैं। एक कपट हजारों सत्यों को नष्ट कर डालता है। मौजूदा बाजारवादी व्यवस्था में मिथ्या और कपटपूर्ण विज्ञापनों का जाल फैला हुआ है। इन विज्ञापनों ने जीवन और समाज में वस्तुओं के उपभोग की एक अनावश्यक होड़ा-होड़ी पैदा कर दी है। मायामृषावाद से समाज में लोभजनित बुराइयाँ बढ़ जाती हैं।"
__ भगवती सूत्र के अनुसार माया के पन्द्रह नाम हैं" - (1) माया, (2) उपधि : ठगने के लिए किसी के पास जाना, (3) निकृति : ठगने लिए किसी को विशेष सम्मान देना, (4) वलय : भाषिक छल, (5) गहन : छलने के लिए गूढ आचरण करना, (6) नूम : साजिश, (7) कल्कः दूसरों को हिंसा के लिए दुष्प्रेरित करना, (8) अभद्र व्यवहार करना, (9) निह्नवता : ठगने के लिए कार्य मन्थर गति से करना, (10) कुचेष्टा, (11) आदरणता : अवांछनीय कार्य, (12) गूहनता : अपनी करतूतें छिपाना, (13) वंचकता, (14) प्रति-कुंचनता : किसी के सहज-सरल वचन-व्यवहार का कपट से गलत अर्थ लगाना (15) सातियोगः मिलावट करना।
निश्छल, सरल और मायारहित जीवन में सुख, सौभाग्य और शान्ति का अधिवास होता है तथा पारस्परिक मैत्रीभाव स्थायी व सुदृढ़ बनता है। 4. लोभ-लाभ अर्थशास्त्र का प्रेरक तत्त्व है, लोभदुष्प्रेरक तत्त्व है। लाभ में साधन-शुद्धि का विवेक रखा जाता है। लोभ व्यक्ति को साधन-शुद्धि की फिक्र नहीं करने देता है। नीति को अनीति में बदलने में लोभ की मुख्य भूमिका है। लोभ की वजह से आर्थिक घोटाले, भ्रष्टाचार, झगड़े-टण्टे, हिंसा, युद्ध आदि होते हैं। लोभ और
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321 तृष्णा के वशीभूत इंसान ने पर्यावरण, प्रकृति और संस्कृति को अपूरणीय नुकसान पहुँचाया है। संसार की भलाई
और विश्व-शान्ति के लिए मानव में निर्लोभता की चेतना को जागृत करना बेहद जरूरी है। लाभ से लोभ बढ़ता है। स्वर्ण-रजत और वस्तुओं के ढेर भी लोभी की तृष्णा को शान्त करने में असमर्थ हैं। भगवान महावीर लोभ पर अंकुश के लिए संतोष का सुझाव देते हैं। सन्तोष और साधन-शुद्धि हेतु वे गृहस्थ के लिए इच्छा-परिणाम व्रत का विधान करते हैं।"
लोभ के विभिन्न रूपों को लक्ष्य करते हुए उन्होंने लोभ के सोलह नाम बताये हैं - 1. लोभ (संग्रहवृत्ति), 2. इच्छा (अभिलाष), 3. मूर्छा (तीव्रतम संग्रह-वृत्ति), 4. कांक्षा (आकांक्षा), 5. गृद्धि (आसक्ति), 6. तृष्णा (लालसा), 7. मिथ्या (लोभ के लिए झूठ), 8. अभिध्या (अनिश्चय), 9. आशंसना (प्राप्ति की इच्छा), 10. प्रार्थना (याचना), 11. लालपनता (चाटुकारिता), 12. कामाशा (काम की इच्छा), 13. भोगाशा (भोग की इच्छा), 14. जीविताशा : इसका लक्षणार्थ है - मरण शय्या पर भी जीने का लोभ नहीं त्यागना, 15. मरणाशा : इच्छापूर्ति नहीं होने पर मरने की इच्छा करना, 16. नन्दिराग (प्राप्त में अनुराग)।
इस प्रकार स्पष्ट है कि कषाय-मुक्त व्यक्ति स्वयं का विकास करता है, साथ ही अपने परिवार, समाज, व्यवसाय और इनसे जुड़े लोगों के विकास का कारण बनता है। कषाय-मुक्ति से भाषा-समिति और वचन-गुप्ति का अनुपालन सहज हो जाता है। एक श्रेष्ठ व सफल गृहस्थ बनने के लिए कषाय-त्याग आवश्यक है। कषाय-मुक्ति से जीवन और जगत् का सर्व-मंगल जुड़ा हुआ है। कषाय-मुक्ति की एक साधना से आत्मकल्याण, विश्व-बन्धुत्व, समृद्धि, खुशहाली जैसे अनेक उद्देश्य पूरे होते हैं। षट्जीवनिकाय की रक्षा की उपयोगिता
__आत्मा धर्म और दर्शन की आधारशिला है। द्रव्य दृष्टि से वह सबमें एक समान है और अस्तित्व की दृष्टि से स्वतंत्रा पण्डित सुखलालजी के अनुसार स्वतन्त्र जीववादियों में जैन-परम्परा का प्रथम स्थान है। इसके दो कारण बताये गये हैं - प्रथम, आत्मा विषयक जैन अवधारणा अत्यंत वैज्ञानिक और बुद्धिग्राह्य है। द्वितीय, ई.पू. आठवीं सदी में हुए ऐतिहासिक तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के समय में जैन परम्परा में आत्मा विषयक अवधारणा सुस्थिर हो गई थी। ऐतिहासिक दृष्टि से आत्मा की जैसी अवधारणा आज से 3000 वर्ष पूर्व जैन परम्परा में थी, वैसी ही आज है। जबकि अन्य परम्पराओं की जीव सम्बन्धी मान्यताओं में परिवर्तन होता रहा
वस्तु-स्वातन्त्र्य - जैन दर्शन के वस्तु-स्वातन्त्र्य के सिद्धांत ने मानव जाति का बहुत भला किया है। दर्शन, अध्यात्म, समाज और विज्ञान की अनेक अनसुलझी गुत्थियों को वस्तु-स्वातन्त्र्य के सिद्धांत से आसानी से सुलझाया जा सकता है। व्यक्ति और समाज को कमजोर करने वाली धर्म-विषयक अनेक मिथ्या-धारणाएँ
आत्मवाद के समक्ष अर्थहीन हो जाती हैं। ज्ञान-विज्ञान, अहिंसा और पुरुषार्थ की अलख जगाने और जगाये रखने में आत्मवाद की बड़ी भूमिका है। श्रमणाचार में स्वावलम्बन का एक आधार वस्तु-स्वातन्त्र्य है, जो
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|| 10 जनवरी 2011 | सबको आत्म-निर्भरता की प्रेरणा देता है।
आत्मवाद ने उपादान और निमित्त का समाधानकारी नियम हमारे सामने रखा। फलस्वरूप व्यक्ति ने समस्याओं के समाधान के लिए समस्याओं की तह में जाना सीखा। समस्या के मूल में जाकर किये गये समाधान से समस्या का स्थायी हल निकलता है। आज समाजशास्त्रियों और नीति-निर्माताओं के सामने विषमता, पर्यावरण प्रदूषण, बेरोजगारी, जनसंख्या वृद्धि आदि न जाने कितनी-कितनी समस्याएँ हैं। उनके सामने आत्मा का, अहिंसा का, त्याग का कोई सुस्पष्ट दर्शन नहीं है। वे निमित्तो में ही समाधान ढूंढते रहते हैं। परिणामस्वरूप समस्याओं का स्थायी समाधान तो नहीं होता है सो ठीक, कभी-कभी एक समाधान अन्य नई समस्याओं को जन्म देने वाला सिद्ध हो जाता है। निपट भौतिकवादी और अनात्मवादी सोच और कार्य-शैली से आज संसार एक ऐसी जगह पर आ गया लगता है, जहाँ आगे विनाश के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है।
अहिंसा का सिद्धांत आत्मवाद की बुनियाद पर खड़ा है। यह बुनियाद बहुत मजबूत व बहुआयामी है। आगम ग्रन्थों में अहिंसा की जैसी मौलिक, सूक्ष्मतम व सर्वग्राही व्याख्या मिलती है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। आगम ग्रन्थों में वर्णित अहिंसा-सम्बन्धी सूक्ष्म विवेचन का पर्यावरण और पारिस्थितिकी की दृष्टि से बहुत महत्त्व है। ग्रन्थों में संसारी जीव के दो प्रकार बताये गये हैं - स्थावर और त्रस। जिन जीवों में गमनागमन की क्षमता का अभाव है, वेस्थावर जीव हैं तथा जिनमें चलने-फिरने की क्षमता है, वे त्रसजीव हैं। स्थावरजीव
__ श्रावक स्थावर जीवों की हिंसा का पूर्ण त्याग नहीं कर पाता है। लेकिन जिन कार्योंमें अत्यधिक स्थावरकायिक वसूक्ष्म जीवों की हिंसा होती है, उन्हें महाआरम्भ' कहा गया और उनकी हिंसा से बचने के लिए निर्देश किये गये हैं। स्थावर जीवों के पाँच भेद हैं - 1. पृथ्वी - आगमों में स्थूल पृथ्वी के दो प्रकार बताये गये हैं - मृदु और कठोर। इनमें मृदु पृथ्वी के सात तथा
कठोर पृथ्वी के छत्तीस प्रकार बताए गये हैं। इन भेदों में कृषि योग्य मिट्टी से लेकर रत्न-मणि तक का उल्लेख है। पृथ्वी समस्त प्राणियों के लिए आधार है। प्रदूषण की मार पृथ्वी के नैसर्गिक वैविध्य पर पड़ी है। पृथ्वी के प्रदूषित होने से उसके आश्रित रहने वाले अनेक त्रस जीवों तथा स्थावर में वनस्पति आदि के जीवन पर विपरीत प्रभाव पड़ा। अनेक जीव-जन्तु और वनस्पतियाँ धरती से विलुप्त हो गईं। पृथ्वीकाय के
स्वरूप को जानकर इनकी विराधना से बचना चाहिये। 2. जल - स्थूल जल के पाँच भेद बताये गये हैं - शुद्ध उदक, ओस, हरतनु, कुहरा और हिम। सहज रूप से
सर्व-सुलभ जल आज बिकाऊ हो गया है, उसके लिए झगड़े होते हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान विश्व में 100 करोड़ से अधिक लोग गन्दा पानी पीने को मजबूर हैं। एक को शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं है, दूसरा उसकी फिजूलखर्ची कर रहा है। ये हिंसा के अर्थतन्त्र के परिणाम हैं कि पूरा पर्यावरण-तन्त्र चरमरा गया है। जल-संयम और जल-संरक्षण आज की सबसे बड़ी जरूरत बन गई है।
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जिनवाणी 3. वनस्पति - स्थूल वनस्पति के दो भेद - प्रत्येक शरीरी और साधारण शरीरी। प्रत्येक शरीरी के बारह
प्रकार हैं - वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली, तृण, लतावलय, पर्वग, कुहुण, जलज, औषधितृण और हरितकाया साधारण वनस्पति के अन्तर्गत कन्द, मूल आदि आते हैं। घटते वन तथा विलुप्त होती वनस्पतियों के कारण जैव विविधता का संकट गहराता जा रहा है। जीव-जन्तुओं के प्राकृतिक आवास नष्ट हो रहे हैं। वनस्पति के आश्रय में रहने वाले त्रस-स्थावर जीवों का अस्तित्व ही संकट में पड़ गया है।
वनस्पति के संरक्षण से अनेक जीवों का संरक्षण सम्भव है। 4. अग्नि - स्थूल अग्नि के अनेक भेद बताये गये हैं - अंगार, मुर्मुर, शुद्ध, अग्नि, अर्चि, ज्वाला, उल्का,
विद्युत आदि।" अग्नि का विनाशक प्रयोग नहीं किया जाना चाहिये। पर्यावरण की रक्षा के लिए अग्नि के उपयोग का संयम भी आवश्यक है। अब तो बिजली बचाओ (Save Electricity) का नारा भी
दिया जाने लगा है। 5. वायु - स्थूल वायुकायिक जीवों के छः भेद हैं - उत्कलिका, मण्डलिका, घनवात, गुंजावात, शुद्धवात
और संवर्तक वात। वर्तमान समय में प्रदूषण-मुक्त, स्वच्छ और ताजी हवाओं के लिए नाना प्रकार की वनस्पतियों और वृक्षों का रोपण किया जाता है। इसके अलावा पठारों की सुरक्षा, वन सम्पदा की सुरक्षा, हानिकारक रासायनिक पदार्थोकी समाप्ति, वाहनों व रासायनिक संयंत्रों से निकलने वाले धुएँ पर नियन्त्रण, निजी वाहनों पर लोगों की निर्भरता घटना तथा प्रदूषण-मुक्त उद्योगों की स्थापना आदि उपाय किये जाते हैं।
स्थूल जीवों की आगम वर्णित जानकारी से यह प्रेरणा मिलती है कि पर्यावरण और प्रकृति की रक्षार्थ स्थावरकायिक जीवों की हिंसा से बचना भी नितान्त आवश्यक है। आचारांग सूत्र में स्थावरकायिक जीवों की रक्षा की प्रबल प्रेरणा दी गई है। स्थावर और त्रस सभी प्रकार के जीव परस्पर एक-दूसरे के आश्रित होते हैं। इसलिए एक के विनाश में सबका विनाश और एक के संरक्षण में सबका संरक्षण समाहित होता है। ध्वनिप्रदूषण, वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण, भूमि-प्रदूषण जैसी समस्याएँ वर्तमान में हमारे सामने बीभत्स रूप में खड़ी हैं। इनके मूल में स्थावरकायिक जीवों की बेहिसाब हिंसा है। इन्ही स्थावरकायिक जीवों के सहारे अनेक प्रकार के त्रस प्राणियों का जीवन निर्भर होता है। वायु, जल, वनस्पति आदि के प्रदूषित होने से इनके सहारे जीने वाले सभी जीवों का जीवन संकट में पड़ जाता है। जल, वायु, भूमि, अन्य सूक्ष्म व स्थूल प्राणी, पेड़-पौधे और मानव का जब अन्तःसम्बन्ध टूट जाता है तो पर्यावरण और पारिस्थिकी संतुलन को नुकसान पहुंचता है। सूक्ष्म जीवों की रक्षा के लिए भगवान महावीर प्रत्येक कार्य-व्यापार में यतना और विवेक की हिदायत देते हैं। सजीव
आचारांग के प्रथम अध्ययन के छठे उद्देशक में संसार स्वरूप के विवेचन में त्रस जीवों का उल्लेख है। त्रस जीवों के चार भेद बताये हैं - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। द्वीन्द्रिय जीवों में शरीर और रसना
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__ 10 जनवरी 2011 || वाले लट, केंचुआ, कृमि, शंख आदि, त्रीन्द्रिय जीवों में शरीर, रसना और घ्राण वाले चींटी, मकोड़े, दीमक, झिंगुर आदि, चतुरिन्द्रिय में काया, जिह्वा, घ्राण और चक्षु वाले तितली, मक्खी, भ्रमर, बिच्छू आदि अनेक जीव आते हैं। उपर्युक्त चार और पाँचवी श्रवणेन्द्रिय वाले जीव पंचेन्द्रिय जीव कहलाते हैं।
पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हैं - सम्मूर्छिम और गर्भज। आगमों में संमूर्छिम जीवों की उत्पत्ति जिस प्रकार से बताई गई है, उसकी तुलना वर्तमान में क्लोनिंग से की जा सकती है, जिसके औचित्य-अनौचित्य पर चर्चा हो रही है। तिर्यंच पंचेन्द्रिय के तीन प्रकार हैं - जलचर, स्थलचर और खेचर। जलचर के अन्तर्गत मत्स्य, कच्छप, ग्राह, मगर, शुंशुमार आदि आते हैं। स्थलचर की दो मुख्य जातियाँ हैं - चतुष्पद और परिसपी" चतुष्पद के चार प्रकार हैं - एक खुर वाले, जैसे अश्व आदि, दो खुर वाले, जैसे बैल आदि, गोल पैर वाले, जैसे हाथी आदि और नख-सहित पैर वाले, जैसे शेर आदि। परिसर्प की मुख्यतः दो जातियाँ बताई गई हैं - एक भुजपरिसपी जो भुजाओं के बल पर रेंगते हैं, वे प्राणी भुजपरिसर्प हैं, जैसे गोह आदि। दूसरी जाति उरःपरिसर्प की है। इसके अन्तर्गत पेट के बल रेंगने वाले सर्प आदि आते हैं। खेचर की चार जातियाँ बताई गई हैं - चर्म पक्षी, रोम पक्षी, समुद्न पक्षी और वितत पक्षी।"
आगम ग्रन्थों में सभी प्रकार के जीवों को बचाने के लिए अनेक स्थलों पर प्रेरणाएँ दी गई हैं। उपासकदशांग में भगवान महावीर के उपासक आनन्द श्रावक को अभय प्रदायक कहा गया है। वर्तमान में बढ़ती हिंसा की वजह से पशु-पक्षियों और जीव-जन्तुओं की सैकड़ों जातियाँ और प्रजातियाँ धरती से लुप्त हो गईं और सैकड़ों विलुप्ति की कगार पर हैं। नित नई बीमारियाँ, बढ़ती प्राकृतिक आपदाएँ और जलवायु परिवर्तन के लिए जीव-जन्तुओं का अंधाधुंध विनाश जिम्मेदार है। पर्यावरण-संरक्षण और पारिस्थितिकी सन्तुलन के लिए सभी प्रकार के जीवों का धरती पर होना आवश्यक है। षट्जीवनिकाय की रक्षा में इसी आवश्यकता का प्रतिपादन किया गया है। रात्रि-भोजन निषेध की उपयोगिता
रात्रिभोजन त्याग भगवान महावीर की विशिष्ट और अनुपम देन है। श्रमणाचार में रात्रिभोजन-त्याग को छठे महाव्रत का दर्जा दिया गया है। श्रमण-श्रमणियों के लिए रात्रिभोजन-त्याग को अनिवार्य बताया गया है। उनके लिए रात्रि में जल-सेवन भी निषिद्ध है। सूर्यास्त होते-होते भी कोई श्रमण भोजन करता है तो वह ‘पाप श्रमण' कहलाता है।" महाव्रतों के अपवाद मिल सकते हैं, पर रात्रिभोजन-त्याग का कोई अपवाद नहीं है। इससे रात्रिभोजन-त्याग की विशिष्टता और महत्ता का पता चलता है। चारित्रपाहुड में 11 प्रकार के संयमाचरण में रात्रिभोजन-त्याग को समाविष्ट किया गया है। 'आचार-सार' में तो श्रावकाचार में भी रात्रिभोजन-त्याग को छठे व्रत की संज्ञा दी गई है।
रात्रिभोजन निषेध का सम्बन्ध जितना अहिंसा और आरोग्य से है, उतना ही संयम, सदाचार और ब्रह्मचर्य से भी है। जो व्यक्ति सूर्यास्त पूर्व ही अपना आहार ग्रहण कर लेता है, सोने के समय तक उसका पेट
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325 हल्का-फुलका और चित्त प्रसन्न रहता है। ऐसे में ब्रह्मचर्य का पालन उसके लिए बहुत आसान हो जाता है। आचार्य सुधर्मा भ. महावीर की स्तुति में कहते हैं - ‘से वारिया इत्थि सराइ भत्तं। यहाँ रात्रिभोजन के साथ ही वासना-विलास का निषेध किया गया है। रसना और वासना का गहरा रिश्ता है। यही रिश्ता रात्रिभोजन और वासना का भी है। जैनाचार में विशेष साधना करने वाला श्रावक प्रतिमाएँ स्वीकार करता है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं मे पाँचवीं नियम प्रतिमा में रात्रिभोजन त्याग का समावेश है तथा छठी ब्रह्मचर्य प्रतिमा बताई गई है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार छठी प्रतिमा रात्रिभुक्तित्याग और सातवीं प्रतिमा ब्रह्मचर्य का पालन है। इससे रात्रिभोजन त्याग और ब्रह्मचर्य के सहसम्बन्ध का पता चलता है।
_ कितने ही व्यक्ति चाहते हुए भी ब्रह्मचर्य की साधना नहीं कर पाते हैं। ऐसे व्यक्तियों को सादा आहार करना चाहिये तथा रात्रिभोजन-त्याग की दिशा में आगे बढ़ना चाहिये। सूर्यास्त पूर्व भोजन कर लेने वाले व्यक्ति का शरीर निद्रा-पूर्व तक स्वाध्याय, ध्यान, परमेष्ठी-स्मरण आदि के लिए एकदम अनुकूल हो जाता है। जो व्यक्ति निद्रा लेने से पूर्व ध्यान, नवकार-स्मरण आदि करता है अथवा ध्यान करके निद्रा के रूप में विश्राम करता है, उसकी निद्रा योग-निद्रा हो जाती है। उसका थोड़ी देर का आत्म-चिन्तन याध्यान सम्पूर्ण निद्रा-काल जितना लाभकारी हो जाता है। अशुभ स्वप्नों से बचने के लिए भी निद्रा-पूर्व ध्यान अथवा नमस्कार महामंत्र का.स्मरण बहुत हितकारी माना जाता है। लेकिन निद्रा-पूर्व ध्यान को प्रभावशाली बनाने के लिए सबसे प्रमुख तथ्य हैसूर्यास्त-पूर्व आहार।
जो व्यक्ति रात्रिभोजन त्याग करता है और योग-निद्रा लेता है, उसकी थोड़ी-सी निद्रा भी अधिक थकान मिटाने वाली और शीघ्र स्फूर्ति देने वाली हो जाती है। योग-निद्रा लेने वाला अगले दिन ताजगी के साथ जल्दी उठ सकता है। वह भली-भाँति अपनी प्रातःकालीन साधना-उपासना कर सकता है और पुनीत संकल्पों के साथ अपने नये दिन का शुभारंभ कर सकता है। इस तरह उसके पुण्य और पुरुषार्थ में अभिवृद्धि होती है तथा दिनचर्या और जीवनचर्या में एक ऊर्जा और नियमितता का समावेश हो जाता है।
जैन गृहस्थाचार में रात्रिभोजन-त्याग का नियम एक विशिष्ट पहचान के रूप में स्थापित है। परन्तु यह पहचान आज कम होती जा रही है। उसका सामाजिक जन-जीवन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। वह इस रूप में कि पहले तो व्यक्तिगत तौर पर रात्रि-भोजन होता था, अब सामूहिक रूप से रात को खाया और खिलाया जाता है। वह भी सामान्य रूप से नहीं, बल्कि आडम्बर और वैभव-प्रदर्शन के साथ खुले उद्यानों में बड़े-बड़े रात्रि भोज किये जाते हैं। धनाढ्य-वर्ग ऐसे रात्रि-भोजों में कुछ घण्टों में अनाप-शनाप पैसा पानी की तरह बहा देता है। निम्न मध्यवर्गीय जन-जीवन पर इस प्रकार के प्रदर्शनों का अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता है। यदि इन भोजों को दिन में कर लिया जाये तो धन का अपव्यय तो रुकेगा ही, समाज में अनावश्यक होड़ा-होड़ी में भी कमी आएगी। सूक्ष्म जीवों की हिंसा तथा विद्युत की फिजूलखर्ची भी इससे रुकेगी। अनेक जैन गृहस्थ आज भी सामूहिक रात्रिभोजों का निषेध करके समाज को समता और सादगी का सन्देश देते हैं। सामूहिक रात्रिभोजों से
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जिनवाणी
|| 10 जनवरी 2011 || समाज और पर्यावरण पर जो विपरीत प्रभाव होते हैं, उनका आकलन किया जाए तो अनेक तथ्य मिल सकते हैं। रात्रिभोजन-त्याग और स्वास्थ्य का भी गहरा सम्बन्ध है, जिसके बारे में समय-समय पर चर्चा होती रहती है। आयुर्वेद में भी सूर्यास्त-पूर्व भोजन को स्वास्थ्य के लिए हितकर बताया गया है। रात को नहीं खाने वाला अनेक प्रकार की बीमारियों से बचा रहता है। इसका व्यक्ति की क्षमता और साधना पर अनुकूल प्रभाव होता है। वस्तुतः रात्रिभोजन निषेध का व्यष्टि और समष्टि, दोनों पर अनुकूल प्रभाव होता है।
__श्रमणाचार और श्रावकाचार का अन्तःसम्बन्ध है। श्रावक के लिए श्रमण-जीवन और श्रमणाचार आदर्श रूप में होते हैं। एक जैन श्रमण का जीवन श्रम, स्वावलम्बन, कष्ट-सहिष्णुता, संयम, त्याग, क्षमा, करुणा, सजगता, मौन मर्यादा आदि अनेक विशेषताओं से अनुप्राणित होता है। श्रमण-जीवन की ये विशेषताएँ किसी न किसी रूप में श्रावक-जीवन और जनजीवन को प्रभावित और प्रेरित करती हैं। इस प्रकार जैन श्रमण की पूरी दिनचर्या तथा सम्पूर्ण जीवन-चर्या जिस प्रकार एक श्रावक के लिए उपयोगी व अनुकरणीय होती है, उसी प्रकार वह मानव, मानवता और दुनिया के लिए भी अनेक प्रकार की प्रेरणाओं का संचार करने वाली होती है। सन्दर्भ :1. आवश्यक नियुक्ति, 189
कोहंमाणंचमायंचलोभंचपाववडढणं। वमे चत्तारि दोसे उइच्छंतो हियमप्पणो ।-दशवैकालिक सूत्र-8.37 कोहो पीइंपणासेइमाणो विणयनासणो।माया मित्ताणि नासेइ लोहोसव्वविणासणो।- दशवैकालिक सूत्र, 8.38
होदि कसाउम्मत्तो, उम्मत्तो तधण पित्तउम्मत्तो। - भगवती आराधना, 1331 ____ अणथोवं वणथोवं, अग्गीथोवं कसायथोवं च। न हु भे वीससियव्वं, थोवं पि हुतं बहु होइ।- आवश्यक नियुक्ति,
120
नाशाम्बरत्वेन सिताम्बरत्वे,न तर्कवादे न च तत्त्ववादे।न पक्षसेवाश्रयणेन मुक्तिः, कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव। 7. इसिभासियाई, 36.13 8. आचारांग सूत्र, 4.3.136
रोसाइट्ठो णीलो हदप्पभो अरदिअग्गिसंसत्तो। सीदे वि णिवाइज्जदि वेवदि य गहोवसिट्ठो वा।-भगवती आराधना,
1360, कोधो सत्तुगुणकरो, भ.आ.-1365 10. व्याख्याप्रज्ञप्ति, 12.5.103 11. बालजणो पगब्भई-सूत्रकृतांग 1.11.2 एवं अन्नं जणं खिंसइ बालपन्ने।- वही, 1.11.14 12. न तस्स जाई व कुलं व ताणं, नण्णत्थ विज्जाचरणं सुचिण्णं- सूत्रकृतांग, 1.13.11 13. सयणस्स जणस्स पिओ, णरो अमाणी सदा हवदि लोए। णाणं जसं च अत्थं, लभदि सकज्जं च साहेदि।-भगवती
आराधना, 1379 व्याख्याप्रज्ञप्ति, 12.43
सच्चाण सहस्साणि वि, माया एक्काविणासेदि-भगवती आराधना, 1384 16. मायामोसं वड्ढई लोभदोसा- उत्तराध्ययन सूत्र, 32.30 17. व्याख्याप्रज्ञप्ति, 12.54 18. जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई। - उत्तराध्ययन सूत्र, 8.17
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________________ || 10 जनवरी 2011 | जिनवाणी 327 19. उत्तराध्ययन सूत्र, 9.48-49 20. लोभंसन्तोसओ जिणे। -दशवैकालिक 8.39 एवं लोभविजएणं संतोसंजणयइ।- उत्तराध्ययन सूत्र 29.70 21. आवश्यक सूत्र पाँचवाँ और छठवाँ व्रत 22. व्याख्याप्रज्ञप्ति 15.55 23. समवायांग 1.1 स्थानांग 1.1 24. शास्त्री देवेन्द्र मुनि : जैन दर्शन स्वरूप और विश्लेषण, पृ.-87 . 25. संसारत्था उजे जीवा दुविहा ते वियाहिया। तसा य थावरा चेव, थावरा तिविहा तहिं।- उत्तराध्ययन 36.68 26. उत्तराध्ययन (36.70) में अग्नि और वायु को अपेक्षा से गतिशील माना है तथा स्थावर में पृथ्वी, जल और वनस्पति को लिया गया है। 27. उत्तराध्ययन 36.73-76, प्रज्ञापना (1.24) में पृथ्वीकाय के 40 भेद बताये गये हैं। मूलाचार में पृथ्वी के 36 भेद और तिलोयपण्णत्ति में 16 भेद बताये हैं। 28. उत्तराध्ययन 36.86, मूलाचार (गाथा 210) में 8 भेद बताये गये हैं। 29. नफा-नुकसान, जयपुर 9-10 फरवरी, 2005 30. उत्तराध्ययन 36.95-96, प्रज्ञापना (1.38-54) में वनस्पति के 12 वर्ग किये गये हैं। 31. उत्तराध्ययन 36.101-109, मूलाचार (गाथा 211) में अग्नि के 6 भेद बताये गये हैं। 32. बायराजे उ पज्जत्ता पंचहा ते पकित्तिया। उक्कलिया मंडलिया, घणगुंजा सुद्धवाया य।- उत्तराध्ययन, 36.118 33. भुवनेश मुनि (डॉ.) जैन आगमों के आचार दर्शन और पर्यावरण संरक्षण का मूल्यांकन', पृ. 190 34. जयंचरे जयं चिट्टे, जयमासे, जयं सये। जयं भुंजतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधई।- दशवैकालिक सूत्र, 4.62 35. बेइंदिया तेइंदिया, चउरो, पंचिंदिया चेव।-उत्तराध्ययन, 36.126 36. उत्तराध्ययन, 36.172-173 37. उत्तराध्ययन, 36.180 38. उत्तराध्ययन, 36.181-182 39. उत्तराध्ययन 36.188, डॉ. सुदर्शन लाल जैन ने 'उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन' में जीव के इन भेदों और प्रभेदों का विशेष विवेचन किया है। 40. दशवैकालिक-सूत्र 4.16, उत्तराध्ययन-सूत्रं अध्ययन 19, मूलाचार 112-113 41. उत्तराध्ययन सूत्र, 17.16 42. चारित्रपाहुड, 22 43. आचारसार, 5.70 44. सूत्रकृतांग सूत्र, छठा अध्ययन 45. दशाश्रुतस्कंध, दशा 6 46. समंतभद्रकृत श्रावकाचार, वसुनन्दी श्रावकाचार आदि। -इण्टरनेशनल लॉ सेण्टर, 61-63, डॉ. राधाकृष्णन मार्ग, मैलापुर, चेन्नई-600004 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only