Book Title: Shravakopayogi Shramanachar
Author(s): Dilip Dhing
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

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Page 8
________________ | 10 जनवरी 2011 ॥ जिनवाणी 325 हल्का-फुलका और चित्त प्रसन्न रहता है। ऐसे में ब्रह्मचर्य का पालन उसके लिए बहुत आसान हो जाता है। आचार्य सुधर्मा भ. महावीर की स्तुति में कहते हैं - ‘से वारिया इत्थि सराइ भत्तं। यहाँ रात्रिभोजन के साथ ही वासना-विलास का निषेध किया गया है। रसना और वासना का गहरा रिश्ता है। यही रिश्ता रात्रिभोजन और वासना का भी है। जैनाचार में विशेष साधना करने वाला श्रावक प्रतिमाएँ स्वीकार करता है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं मे पाँचवीं नियम प्रतिमा में रात्रिभोजन त्याग का समावेश है तथा छठी ब्रह्मचर्य प्रतिमा बताई गई है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार छठी प्रतिमा रात्रिभुक्तित्याग और सातवीं प्रतिमा ब्रह्मचर्य का पालन है। इससे रात्रिभोजन त्याग और ब्रह्मचर्य के सहसम्बन्ध का पता चलता है। _ कितने ही व्यक्ति चाहते हुए भी ब्रह्मचर्य की साधना नहीं कर पाते हैं। ऐसे व्यक्तियों को सादा आहार करना चाहिये तथा रात्रिभोजन-त्याग की दिशा में आगे बढ़ना चाहिये। सूर्यास्त पूर्व भोजन कर लेने वाले व्यक्ति का शरीर निद्रा-पूर्व तक स्वाध्याय, ध्यान, परमेष्ठी-स्मरण आदि के लिए एकदम अनुकूल हो जाता है। जो व्यक्ति निद्रा लेने से पूर्व ध्यान, नवकार-स्मरण आदि करता है अथवा ध्यान करके निद्रा के रूप में विश्राम करता है, उसकी निद्रा योग-निद्रा हो जाती है। उसका थोड़ी देर का आत्म-चिन्तन याध्यान सम्पूर्ण निद्रा-काल जितना लाभकारी हो जाता है। अशुभ स्वप्नों से बचने के लिए भी निद्रा-पूर्व ध्यान अथवा नमस्कार महामंत्र का.स्मरण बहुत हितकारी माना जाता है। लेकिन निद्रा-पूर्व ध्यान को प्रभावशाली बनाने के लिए सबसे प्रमुख तथ्य हैसूर्यास्त-पूर्व आहार। जो व्यक्ति रात्रिभोजन त्याग करता है और योग-निद्रा लेता है, उसकी थोड़ी-सी निद्रा भी अधिक थकान मिटाने वाली और शीघ्र स्फूर्ति देने वाली हो जाती है। योग-निद्रा लेने वाला अगले दिन ताजगी के साथ जल्दी उठ सकता है। वह भली-भाँति अपनी प्रातःकालीन साधना-उपासना कर सकता है और पुनीत संकल्पों के साथ अपने नये दिन का शुभारंभ कर सकता है। इस तरह उसके पुण्य और पुरुषार्थ में अभिवृद्धि होती है तथा दिनचर्या और जीवनचर्या में एक ऊर्जा और नियमितता का समावेश हो जाता है। जैन गृहस्थाचार में रात्रिभोजन-त्याग का नियम एक विशिष्ट पहचान के रूप में स्थापित है। परन्तु यह पहचान आज कम होती जा रही है। उसका सामाजिक जन-जीवन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। वह इस रूप में कि पहले तो व्यक्तिगत तौर पर रात्रि-भोजन होता था, अब सामूहिक रूप से रात को खाया और खिलाया जाता है। वह भी सामान्य रूप से नहीं, बल्कि आडम्बर और वैभव-प्रदर्शन के साथ खुले उद्यानों में बड़े-बड़े रात्रि भोज किये जाते हैं। धनाढ्य-वर्ग ऐसे रात्रि-भोजों में कुछ घण्टों में अनाप-शनाप पैसा पानी की तरह बहा देता है। निम्न मध्यवर्गीय जन-जीवन पर इस प्रकार के प्रदर्शनों का अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता है। यदि इन भोजों को दिन में कर लिया जाये तो धन का अपव्यय तो रुकेगा ही, समाज में अनावश्यक होड़ा-होड़ी में भी कमी आएगी। सूक्ष्म जीवों की हिंसा तथा विद्युत की फिजूलखर्ची भी इससे रुकेगी। अनेक जैन गृहस्थ आज भी सामूहिक रात्रिभोजों का निषेध करके समाज को समता और सादगी का सन्देश देते हैं। सामूहिक रात्रिभोजों से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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