Book Title: Shravakachar ka Mulyatmak Vivechan
Author(s): Subhash Kothari
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 2
________________ श्रावकाचार का मूल्यात्मक विवेचन श्रावक आधार के समान्य नियम प्रस्तुत पत्र में, मैं श्रावक शब्द का अधिकारी होने के लिए किन-किन गुणों और नियमों का पालन करना आवश्यक होता है, उस पर संक्षेप में प्रकाश डालते हुए, उन व्रतों और नियमों का हमारे सामाजिक, व्यवहारिक और राष्ट्रीय जीवन में क्या महत्त्व है उस पर भी कुछ कहना चाहूँगा। यह शाश्वत सत्य है कि जो व्यक्ति व्यावहारिक जीवन के व्यवहारों में कुशल नहीं है वह आध्यात्मिक साधना में आगे नहीं बढ़ सकता है। इसी मनोवैज्ञानिक दृष्टि को ध्यान में रख कर हमारे आचार्यों ने व्रतों की साधना की पूर्व भूमिका के रूप में ऐसे अनेक गुणों का निर्देश अपने ग्रन्थों में किया है जिनमें न्याय, नीतिपूर्वक धन का उपार्जन, पाप कर्मों का त्याग, सदाचार का पालन, धर्म श्रवण करने की जिज्ञासा, अतिथि आदि का यथोचित् सत्कार, विवेकशील, विनम्र और करुणाशील होना मुख्य है। उपरोक्त कार्यों को करने से स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्ति व्यावहारिक जीवन में सफलतापूर्वक कार्य कर रहा है इसलिये तीर्थंकरों ने व्यक्ति के व्यावहारिक जीवन को बहुत मनोवैज्ञानिक ढंग से जांचा, परखा और उसे ही धार्मिकता का.स्प देकर व्यक्ति को सामाजिक बना डाला। ये गुण आध्यात्मिक साधना के प्रवेश द्वार है। इनके सफल आचरण के बाद ही व्यक्ति व्रतों की आराधना में आगे कदम बढ़ा सकता है। बारह व्रत और उनकी उपयोगिता बारह व्रत श्रावक आचार के मूल आधार माने जाते हैं। इन बारह व्रतों को आचार्यों ने तीन वर्गों में विभाजित किया है -- पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत। (1) अहिंसा अणुवत जैन शास्त्रों में संकल्पी, आरम्भी, उद्योगी और विरोधी इन चार प्रकार की हिंसाओं का उल्लेख प्राप्त होता है। उन चारों हिंसाओं में से श्रावक संकल्पी हिंसा का त्याग करता है। संकल्पी हिंसा से तात्पर्य "मैं किसी को माऊँ" इस भावना से की गयी हिंसा से है। चूँकि श्रावक गृहस्थावस्था में रहता है अतः कभी मकान निर्माण के प्रसंग से, कभी दुष्ट व्यक्ति को दण्ड देने के रूप में, कभी समाज व्यवस्था सुचारू रूप से चलाने में सूक्ष्म जीवों की हिंसा हो जाती है या यूँ कहें कि करनी पड़ती है। अतः इस हिंसा से वह पूर्ण रूप से विरत नहीं हो पाता है। हाँ ! इतना आवश्यक है कि वह इन सब कार्यों में विवेकयुक्त होकर कार्य करता है। अतिचार अतिचारों का तात्पर्य उन खण्डनों से है जिनसे व्रत में दोष लगने की सम्भावना रहती है। श्रावक को इन अतिचारों को ध्यान में रखना चाहिये और इनसे बचकर अपने व्रतों का पालन करना चाहिये। प्रत्येक व्रत के पाँच-पाँच अतिचार है। अहिंसाणुव्रत के पाँच अतिचार बन्ध, वध, छविच्छेद, भत्तपान व्यवच्छेद व अतिभार है। किसी को बांधना, मारना, अंगों को काट देना, खाने-पीने में बाधा उपस्थित करना एवं व्यक्ति की सामर्थ्य से अधिक भार डालना, व्रत भंग के कारण हैं। यह पाँचों अतिचार वर्तमान सामाजिक जगत में भी पूर्ण प्रासंगिक हैं। ये राज्य व्यवस्था की दृष्टि से अपराध है। इस प्रकार अहिंसाणुव्रत व्यक्ति को नैतिक और सामाजिक बनाता है और समाज और राष्ट्र की आत्मसुरक्षा एवं औद्योगिक प्रगति में सहयोगी बन कर चलता है। 152 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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