Book Title: Shravakachar ka Mulyatmak Vivechan Author(s): Subhash Kothari Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 6
________________ श्रावकाचार का मूल्यात्मक विवेचन (8) अनर्थदण्ड विरमणव्रत निष्प्रयोजन किसी की हिंसा करना अनर्थदण्ड है। हिंसा.के कार्य का, हिंसात्मक शस्त्रों का, पापकर्म का उपदेश एवं कुमार्ग की ओर प्रेरित करने वाले साधनों का त्याग करता है, उसका अनर्थदण्ड विरमण व्रत सम्यक्रूप से होता है। अतिधार हास्यमिश्रित अशिष्टवचन बोलना, शरीर की विकृत चेष्टा करना, निरर्थक बकवाद करना, उपभोग, परिभोग का अधिक संग्रह इस व्रत के दोष हैं, अतिचार हैं। इस प्रकार अनर्थदण्ड विरमणव्रत अनर्थकारी हिंसा पर रोक लगाता है। निरर्थक पानी फेंकना व राह चलते वनस्पति तोड़ना भी इस व्रत के दोष माने गये हैं। (9-12) शिक्षावत ये व्यक्ति के आत्मिक अत्थान के द्योतक है सामायिक देशावकाशिक प्रोषधीपवास और अतिथिसंविभाग -- ये चार इसके भेद हैं। एक निश्चित समय के लिये साधु तुल्य व्यवहार सामायिक है। सीमा मर्यादा का सूक्ष्मीकरण व सीमा के बाहर के आश्रव सेवन का त्याग देशवकाशिक, पूर्ण उपवास व धर्म स्थान पर जाकर सम्यक् आराधना, पौषध और सुपात्र को यथाशक्ति निर्दोष आहार प्रदान करना अतिथिसंविभाग है। ये सभी शिक्षाव्रत आत्मा के आध्यात्मिक विकास से सम्बन्धित हैं, इनसे मानव सेवा, सहभागिता, सहयोग अभावग्रस्त के प्रति सामाजिक कर्तव्य का बोध प्राप्त होता है। इस प्रकार इन बारह व्रतों की संक्षेप में चर्चा करने से स्पष्ट है कि ये बारह व्रत व्यक्ति के लिए कितने महत्त्वपूर्ण हैं। ये व्रत व्यक्ति का व्यक्ति के प्रति प्रेम, सहयोग, सहकार व बन्धुत्व की भावना को उत्पन्न करते हैं। ये व्यक्ति को सामाजिक बनाते हैं। समाज में गृहस्थ वर्ग की भूमिका वैसे भी दोहरी है। एक ओर वह स्वयं साधना करता है। दूसरी ओर पूर्णसाधना करने वाले साधु-साध्वियों के साधना का पर्यवेक्षक भी है। अतः हम अपने कर्तव्य को पहचानें और इन व्रतों की उपयोगिता को समझ कर जीवन में अपनाने का प्रयास करें तो निश्चित ही हम उस सामाजिक सौहार्द को ला सकेंगे, जिसकी हमें अभी प्रतीक्षा है। सन्दर्भ-ग्रन्थ 1. सुत्तागणे... सूत्रकृतांगसूत्र, संपा. मुनि मधुकर, सूत्र 8 2. स्थानांगसूत्र, संपा. मुनि मधुकर, 5/1/389 3. वही, 11/5 4. उवासगदसो, संपा. मुनि मधुकर 1 से 10 अध्ययन 5. श्रावकधर्म की प्रासंगिकता का प्रश्न -- डॉ. सागरमल जैन, पृ. 19 6. श्रावक प्रतिक्रमणसूत्र - चौथा अणुव्रत 7. उवासगदसाओ, 1/22-42 8. श्रावक प्रतिक्रमणसूत्र - अणुव्रत 7 * शोधाधिकारी, आगम, अहिंसा, समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर 156 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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