Book Title: Shravakachar ka Mulyatmak Vivechan Author(s): Subhash Kothari Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 5
________________ डॉ. सुभाष कोठारी जैन मतावलम्बियों में अपवाद को छोड़ दें, बाकी के पास जो सम्पत्ति है वह उनके परिश्रम व बुद्धि विलास से प्रार्दुभूत है। इसलिए सम्पत्ति का अर्जन और संग्रह बुरा नहीं है किन्तु जब इसका आधार शोषण या विषमता हो जाय तो वह समाज और राष्ट्र के लिए जहर बन जाता है। परिग्रह अणुव्रत हमें इन सब कठिनाइयों से बचा लेता है। महात्मा गांधी का दृस्टीशिप का सिद्धान्त और विनोबा भावे का विश्वस्थ वृत्ति का सिद्धान्त महावीर के इसी अपरिग्रह अणुव्रत से सम्बन्धित है। इस प्रकार अपरिग्रह अणुव्रत वर्तमान समाजवाद-सहअस्तित्त्व और समानता की दिशा में बहुत महत्त्वपूर्ण कदम सिद्ध हो सकता है। गुणवत पाँच अणुव्रत के विकास क्रम को व्यवस्थित आधार प्रदान करने के लिए गुणव्रत और शिक्षाव्रतों का विधान किया गया है। इनमें दिशाव्रत, उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत एवं अनर्थदण्ड तीन गणव्रत हैं। (6) दिशावत सभी दिशाओं में गमनागमन की मर्यादा निश्चित करने को दिशाव्रत कहा गया है। दसों दिशाओं में कितना आवागमन रखना है इसकी सीमा इस व्रत में तय की जाती है। इसमें ऊंची, नीची, तिरछी दिशा का उल्लंघन, निश्चित की हुई सीमा में वृद्धि करना, सीमा मर्यादा का विस्मरण होने पर उस मर्यादा क्षेत्र से आगे जाना व्रत भंग के कारण माने गये हैं। (7) उपभोग-परिभोग परिमाणमव्रत खाने-पीने, पहनने, ओढ़ने आदि दैनिक व्यवहार में काम में आने वाली वस्तुओं की मर्यादा निश्चित करना उपभोग-परिभोग परिमाण-व्रत है। उपासकदशांगसूत्र में ऐसी 21 वस्तुओं की सूची दी है जिनकी इस व्रत में मर्यादा निश्चित की जानी चाहिये। श्रावक-प्रतिक्रमणसूत्र में इन वस्तुओं की संख्या छब्बीस बताई गयी है। अतिचार सचित्त वस्तु खाना, सचित्त के साथ लगी हुई वस्तु का उपयोग करना, कच्ची वनस्पति का सेवन, अधपकी वनस्पति को खाना एवं ऐसी वस्तु खाना जिसमें खाने योग्य पदार्थ कम हो, फेंकने योग्य अधिक हो तो वह सब व्रत भंग के कारण हैं। कर्मादान उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत में उपर्युक्त पाँच अतिचारों के अतिरिक्त कर्म के अनुसार 15 अतिचार और बताये हैं। ये 15 ऐसे कार्य हैं जिनके करने से भयंकर जीवों की हिंसा व समारम्भ करना पड़ता है, अतः श्रावक को इन व्यवसायों को नहीं करना चाहिये। इनके नाम इस प्रकार हैं -- कोयले का व्यवसाय, जंगल का काटना, लकड़ी बेचना, रथ आदि बेचना, पशुओं को भाड़े पर देना, खान आदि खोदना, हाथी दाँत का व्यापार, लाख का व्यापार, मदिरा आदि का व्यापार, विषादि का व्यवसाय, दास-दासी का व्यापार, घाणी आदि से पेरने का व्यापार, बैल आदि को नपुसंक बनाना, जंगल में आग लगाना, तालाब, झील आदि सुखाना, व्यभिचार आदि के लिए वेश्या आदि रखना। इन पन्द्रह व्यवसायों में त्रस जीवों का घात, सामाजिक असुरक्षा, पर्यावरण संकट, संस्कृति का विनाश किसी न किसी रूप में होता है। अतः श्रावकों को ये व्यापार नहीं करने चाहिये। . 155 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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