Book Title: Shravak Dharm aur Uski Prasangika
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 15
________________ त्याग का स्पष्ट निर्देश दिया गया है। बुद्ध ने तो इस दुष्प्रवृत्ति को रोकने के लिए अपने पंचशीलों में अपरिग्रह के स्थान पर मद्यपान निषेध को स्थान दिया था। यह एक ऐसी बुराई है, जो मानव समाज के गरीब और अमीर दोनों ही वर्गों में हावी है। जैन परम्परा में मद्यपान का निषेध न केवल इसलिए किया गया है कि वह हिंसा से उत्पादित है, अपितु इसलिए कि इससे मानवीय विवेक कुण्ठित होता है और जब मानवीय विवेक ही कुण्ठित हो जाएगा तो दूसरी सारी बुराइयाँ व्यक्ति के जीवन में स्वाभाविक रूप से प्रविष्ट हो जावेंगी। आर्थिक और चारित्रिक सभी दुराचरणों के मूल में नशीले पदार्थों का सेवन ह। सामान्यतया यह कहा जा सकता है कि मादक द्रव्यों के सेवन से मनुष्य अपनी मानसिक चिन्ताओं को भूल कर अपने तनावों को कम करता है, किन्तु यह एक भ्रान्त धारणा ही है। तनाव के कारण जीवित रखकर केवल क्षण भर के लिए अपने विवेक को खोकर विस्मृति के क्षणों में जाना, तनावों के निराकरण एवं परिमार्जन का सार्थक उपाय नहीं है। मद्यपान को भी सभी दुर्गुणों का द्वार कहा गया है । वस्तुतः उसकी समस्त बुराइयों पर विचार करने के लिए एक स्वतंत्र निबन्ध आवश्यक होगा। यहाँ केवल इतना कहना ही पर्याप्त है कि सारी बुराईयाँ विवेक के कुण्ठित होने पर पनपती हैं और मद्यपान विवेकको कुण्ठित करता है। अतः मनुष्य के मानवीय गुणों को जीवित रखने के लिए इसका त्याग आवश्यक है। मनुष्य और पशु के बीच यदि कोई विभाजक रेखा है तो वह विवेक ही है और जब विवेक ही समाप्त हो जायेगा तो मनुष्य और पशु में कोई अन्तर ही नहीं रह जाएगा। मादक द्रव्यों का सेवन मनुष्य को मानवीय स्तर से गिराकर उसे पाशविक स्तर पर पहुँचा देता है। यह भी सुविदित तथ्य है कि जब यह दुर्व्यसन गले लग जाता है तो अपनी अति पर पहुँचाए बिना समाप्त नहीं होता। वह न केवल विवेक को ही समाप्त करता है अपितु आर्थिक और शारीरिक दृष्टि से व्यक्तिको जर्जर बना देता है। आज जैन समाज के सम्पन्न परिवारों में यह दुर्व्यसन भी प्रवेश कर चुका है। मैं ऐसे अनेक परिवारों को जानता हूँ जो धर्म के क्षेत्र में अग्रणी श्रावक माने जाते हैं किन्तु इस दुर्व्यसन से मुक्त नहीं हैं। आज हमें इस प्रश्न पर गम्भीरता से विचार करना होगा कि समाज को इससे किस प्रकार बचाया जाए। जैन समाज ने जो चारित्रिक गरिमा, आर्थिक सम्पन्नता तथा समाज में प्रतिष्ठा अर्जित की थी उसका मूलभूत आधार इन दुर्व्यसनों से मुक्त रहना ही था । इन दुर्व्यसनों के प्रवेश के साथ हमारी चारित्रिक उच्चता और सामाजिक प्रतिष्ठा धीरे श्रावकधर्म और उसकी प्रासंगिता : 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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