Book Title: Shravak Dharm aur Uski Prasangika
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 18
________________ समझ लिया था। अतः अणव्रत-साधना के पूर्व ही इन योग्यताओं का सम्पादन आवश्यक आचार्य हेमचनद्र ने इन्हें “मार्गानुसारी" गुण कहा हैं। धर्म-मार्ग का अनुसरण करने के लिए इन गुणों का होना आवश्यक है। उन्होंने योगशास्त्र के द्वितीय एवं तृतीय प्रकाश में श्रावक-धर्म का विवेचन किया हैं- (1). न्याय एवं नीति पूर्वक धनोपार्जन करना। (2). समाज में जो ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध शिष्ट-जन हैं, उनका यथोचित सम्मान करना, उनसे शिक्षा ग्रहण करना और उनके आचार की प्रशंसा करना। (3). समान कुल और आचारविचार वाले, स्वधर्मी किन्तु भिन्न गोत्रोत्पन्न जनों की कन्या के साथ विवाह करना। (4). चोरी, परस्त्रीगमन, असत्य भाषण आदि पाप कर्मों का ऐहिक-पारलौकिक कटुक विपाक जानकर, पापाचार का त्याग करना। (5). अपने देश के कल्याणकारी आचारविचार एवं संस्कृति का पालन करना तथा संरक्षण करना। (6). दूसरों की निन्दा न करना 1 (7). ऐसे मकान में निवास करना जो न खुला और न अधिक गुप्त हो, जो सुरक्षा वाला भी हो और जिसमें अव्याहत वायु एवं प्रकाश आ सके। (8). सदाचारी जनों की संगति करना । (9). माता-पिता का सम्मान करना, उन्हें सब प्रकार से सन्तुष्ट रखना । (10). जहाँ वातावरणशान्तिप्रद नहो, जहाँ निराकुलता के साथ जीवन-यापन करना कठिन हो, ऐसे ग्राम या नगर में निवास न करना। (11). देश, जाति एवं कुल के विरूद्ध कार्य न करना, जैसे मदिरापान आदि नहीं करना । (12). देश और काल के अनुसार वस्त्राभूषण धारण करना। (13). आय से अधिक व्यय न करना और अयोग्य क्षेत्र में व्यय न करना, आय के अनुसार वस्त्र पहनना । (14). धर्म-श्रवण की इच्छा रखना, अवसर मिलने पर श्रवण करना, शास्त्रों का अध्ययन करना, विरूद्ध अर्थ से बचना, वस्तुस्वरूप का परिज्ञान प्राप्त करना और तत्त्वज्ञ बनना आदि बुद्धि के आठ गुणों को प्राप्त करना । (15). धर्मश्रवण करके जीवन को उत्तरोत्तर उच्च और पवित्र बनाना। (16). अजीर्ण होने पर भोजन न करना, यह स्वास्थ-रक्षा का मूल मंत्र हैं। (17). समय पर प्रमाणोपोत भोजन करना, स्वाद के वशीभूत हो अधिक न खाना। (18). धर्म, अर्थ और काम पुरूषार्थ का इस प्रकार सेवन करना कि जिससे किसी में बाधा उत्पन्न न हो। धनोपार्जन के बिना गृहस्थाश्रम चल नहीं सकता और गृहस्थ काम पुरूषार्थ का भी सर्वथा त्यागी नही हो सकता, तथापि धर्म को बाधा पहुंचा कर अर्थ-काम का सेवन नहीं करना चाहिए। (19). अतिथि, साधु और दीन जनों को यथा योग्य दान देना । (20). आग्रहशील न होना। (21). सौजन्य, औदार्य, दाक्षिण्य आदि गुणों को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील श्रावकधर्म और उसकी प्रासंगिता : 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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