Book Title: Shravak Dharm aur Uski Prasangika
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 25
________________ और सादा बनाने का प्रयास किया गया है, जिसकी उपयोगिता को कोई भी विचारशील व्यक्ति अस्वीकार नहीं करेगा। आज जब मनुष्य उद्दाम भोग-वासना में आकण्ठ डूबता जा रहा हैं, इस व्रत का महत्व स्पष्ट है। . जैन आचार्यों ने उपभोग-परिमाणव्रत के माध्यम से यह भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि गृहस्थ उपासक को किन साधनों के द्वारा अपनी आजीविका का उपार्जन करना चाहिए और किन साधनों से आजीविका का उपार्जन नहीं करना चाहिए। गृहस्थ उपासक के लिए निम्नलिखित पन्द्रह प्रकार के व्यवसायों से आजीविका अर्जित करना निषिद्ध माना गया है1. अङ्गारकर्म-जैन आचार्यों ने इसके अन्तर्गत व्यक्ति को अग्नि प्रज्ज्वलित करके किये जाने वाले सभी व्यवसायों को निषिद्ध बताया हैं, जैसे- कुम्भकार, स्वर्णकार, लौहकार आदि के व्यवसाय । किन्तु मेरी दृष्टि में इसका तात्पर्य जंगल में आग लगाकर कृषि योग्य भूमि तैयार करना है। 2. वनकर्म-जंगल कटवाने का व्यवसाय । 3. शकटकर्म-बैलगाड़ी, रथ आदि बनाकर बेचने का व्यवसाय । 4. भाटककर्म-बैल, अश्व आदि पशुओं को किराये पर चलने का व्यवसाय । 5. स्फोटिकर्म-खान खोदने का व्यवसाय। 6. दन्तवाणिज्यकर्म-हाथी-दाँत आदि हड्डी का व्यवसाय । उपलक्षण से चमडे तथा सींग आदि का व्यवसाय भी इसमें सम्मिलित हैं। 7. लाक्षा-वाणिज्यकर्म-लाख का व्यवसाय । 8. रस-वाणिज्यकर्म-मद्य, मांस, मधु आदि का व्यवसाय । 9. विष-वाणिज्यकर्म-विभिन्न प्रकार के विषों का व्यवसाय। 10. केश-वाणिज्यकर्म-बालों एवं रोमयुक्त चमड़े का व्यवसाय । 11. यन्त्रपीडनकर्म-यन्त्र, साँचे, कोल्हू आदि का व्यवसाय । उपलक्षण से अस्त्र-शस्त्रों का व्यापार भी इसी में सम्मिलित हैं। 12. नीलाञ्छनकर्म-बैल अदि पशुओं को नपुसंक बनाने का व्यवसाय । 13. दवाग्निदापनकर्म-जंगल में आग लगाने का व्यवसाय । 14. सरहद-तडाग-शोषणकर्म-तालाब, झील और सरोवर आदि को सुखाना । 15. असती-जन पोषणताकर्म-व्यभिचार-वृत्ति के लिए वेश्या आदि को नियुक्त कर उनके द्वारा धनोपार्जन करवाना। उपलक्षण से दुष्कर्मों के द्वारा आजीविका का अर्जन करना श्रावकधर्म और उसकी प्रासंगिता : 24 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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