Book Title: Shravak Dharm
Author(s): Premsuman Jain
Publisher: Premsuman Jain

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Page 2
________________ महिमा पर प्रकाश डाला है। आचार्य अमितगति ने उपासकाध्ययन नामक एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना की है। वह अमितगति श्रावकाचार के नाम से विश्रुत है। इसमें 14 परिच्छेदों में श्रावकधर्म का विस्तार से वर्णन है। पूर्व आचार्यो द्वारा लिखे हुए, विषय को इस ग्रन्थ में पल्लवित और पुष्पित किया गया है। आचार्य वसुनन्दि ने श्रावकाचार ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ की भाषा प्राकृत है। उन्होंने 11 प्रतिमाओं को आधार बनाकर श्रावकधर्म का प्रतिपादन किया है। सर्वप्रथम दार्शनिक श्रावक को सप्तव्यसन का त्याग आवश्यक माना है। उन्होंने सप्त व्यसनों के त्याग पर अत्यधिक बल दिया है। 12 व्रत और 11 प्रतिमाओं का वर्णन प्राचीन परम्परा के अनुसार ही किया है। सावयधम्मदोहा ग्रन्थ में मानव भव की दुर्लभता; देव, गुरु तथा दर्शन प्रतिमा का स्वरूप; अष्ट मूलगण की प्रेरणा देते हुए सप्त व्यसनों के दोष बताकर उनके त्याग पर बल दिया है। व्रत प्रतिमा और दान की चर्चा की गई है। इसमें अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रतों का उल्लेख है। उनको धारण करने से जीवन में किस प्रकार निर्मलता आती है, उसका भी प्रतिपादन है। श्रावक के द्वादश व्रतों में पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों की गणना की गयी है। वस्तुतः इन व्रतों का मूलाधार अहिंसा हैं। अहिंसा से ही मानवता का विकास और उत्थान होता है, यही संस्कृति की आत्मा है और है आध्यात्मिक जीवन की नींव। अणुव्रत हिंसा, असत्य चोरी, कुशील और मूर्छा-परिग्रह इन पॉच दोष या पापों से स्थूलरूप या एक देशरूप से विरत होना अणुव्रत है। अणुशब्द का अर्थ लघु या छोटा है। जो स्थूलरूप से पंच पापों का त्याग करता है, वही अणुव्रत का धारी माना जाता है। अणुव्रत पाँच हैं (1) अहिंसाणुव्रत- स्थूलप्राणातिपातविरमण- जीवों की हिंसा से विरत होना अहिंसाणुव्रत है। अहिंसा का अर्थ मनसा, वाचा और कर्मणा प्राणीमात्र के प्रति सद्भावना और प्रेम रखना है। दम्भ, पाखण्ड, ऊँच-नीच की भावना, अभिमान,स्वार्थबुद्धि,छल-कपट प्रभृति भावनाएँ हिंसा हैं। अहिंसा में त्याग है, भोग नहीं। जहाँ राग-द्वेष है, वहाँ हिंसा अवश्य है। अतः राग-द्वेष की प्रवृत्ति का नियंत्रण आवश्यक है। हिंसा चार प्रकार की होती हैं :- (1) संकल्पी, (2) उद्योगी, (3)आरंभी और (4) विरोधी। निर्दोष जीव का जानबूझकर वध करना संकल्पी; जीविका- सम्पादन के लिये कृषि, व्यापार नौकरी आदि कार्यो द्वारा होनेवाली हिंसा उद्योगी ; सावधानीपूर्वक भोजन बनाने, जल भरने आदि कार्यो में होनेवाली हिंसा आरम्भी एवं अपनी या दूसरों की रक्षा के लिये की जानेवाली हिंसा विरोधी हिंसा कहलाती है। प्रत्येक गृहस्थ को संकल्पपूर्वक किसी भी जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिये। अहिंसाणुव्रत का धारी गृहस्थ संकल्पी हिंसा का नियमतः त्यागी होता है। इस हिंसा के त्याग द्वारा श्रावक अपनी कायिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्तियों को शुद्ध करता है। अहिंसक यतनाचार का धारी होता है। अहिंसाणुव्रत का धारी जीव त्रसहिंसा का त्याग तो करता ही है, साथ ही स्थावर- प्राणियों की हिंसा का भी यथाशक्ति त्याग करता है। 2-सत्याणुव्रत- अहिंसा और सत्य का परस्पर में घनिष्ट सम्बन्ध है। एक के अभाव में दूसरे की साधना शक्य नहीं । ये दोनों परस्पर पूरक तथा अन्योन्याश्रित हैं। अहिंसा सत्य को स्वरूप प्रदान करती

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