Book Title: Shravak Dharm Author(s): Premsuman Jain Publisher: Premsuman Jain View full book textPage 1
________________ श्रावक धर्म (DR. Prem Suman Jain) भगवान् महावीर ने श्रावक और श्रमण (मुनि) के लिये आभ्यन्तर शुद्धि हेतु विभिन्न व्रतों के धारण का विधान किया है। इससे जीव क्रमिक साधना में रत होकर आत्म स्वातन्त्र्य की उपलब्धि कर सकता है। जो व्यक्ति मुनि धर्म को अंगीकार करने में असमर्थ है वह श्रावक धर्म को ग्रहण कर सच्चा आत्म साधक गृहस्थ बन जाता है। महावीर ने कहा कि श्रावक और श्रमण के सारे व्रत अहिंसा की साधना के लिये हैं। श्रावकाचार- श्रावक शब्द तीन गुणों के संयोग से बना है और इन तीनों वर्णो के कमशः तीन अर्थ हैं-- (1) श्रद्धालु, (2) विवेकी और (3) कियावान। जिसमें इन तीनों गुणों का समावेश पाया जाता है वह श्रावक है। व्रतधारी गृहस्थ को श्रावक, उपासक और सागर आदि नामों से अभिहित किया जाता है। यह श्रद्धापूर्वक अपने गुरुजनों- मुनियों के प्रचन का श्रवण करता है, अतः यह श्राद्ध या श्रावक कहलाता है। श्रावक के आचार का वर्गीकरण कई दृष्टियों से किया जाता है। श्रावक के द्वादश व्रत ज्ञान, दर्शन और चारित्र की त्रिवेणी मुक्ति की ओर प्रवाहित होती है। किन्तु मानवअपनी-अपनी क्षमता के अनुसार उसकी गहराई में प्रवेश करता है और अपनी शक्ति के अनुसार चारित्र को ग्रहण करता है। श्रावक घर में रहकर पारिवारिक, सामाजिक राष्ट्रीय उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए मुक्तिमार्ग की साधना करता है। दिगम्बर परम्परा में श्रावक धर्म पर चिन्तन करने वाले सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द हैं। उन्हों चारित्र पाहुड (गाथा 20 से 25 ) में केवल छ: गाथाओं में श्रावकधर्म का वर्णन किया है। पहले सागारसंयमाचरण गृहस्थों में होता है। उसके पश्चात 11 प्रतिमाओं के नाम बताये हैं। उसके पश्चात् सागरसंयमाचरण को 5 अणुव्रत, 3 गुणव्रत, और 4 शिक्षाव्रत रूप बताकर उनके नाम बताये हैं। यहाँ पर अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत के नाम का निर्देश है; किन्तु उनके सम्बन्ध में विशेष चर्चा नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द ने संलेखना को चतुर्थ शिक्षाव्रत माना हैं। पर उन्होंने देशावकाशिक व्रत को न गुणव्रतों में स्थान दिया है और न शिक्षाव्रतों में उनके अभिमतानुसार दिकपरिमाण, अनर्थदण्डवर्जन और भोगोपभोगपरिमाण- ये तीन गुणव्रत है; सामायिक, प्रोषध, अतिथिपूजा और संलेखना- ये चार शिक्षाव्रत कुन्दकुन्द के रयणसार ग्रन्थ में भी श्रावकाचार का निरूपण है। 72 गाथाओं में श्रावकधर्म पर चिन्तन किया है। स्वामी कार्तिकेय ने श्रावकधर्म पर पथक रचना कर अनप्रेक्षा नामक ग्रन्थ में धर्म भावना का चिन्तन करते हुए श्रावकधर्म का विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने गृहस्थधर्म के बारह भेद बताये हैं--सम्यग्दर्शनयुक्त, मद्यादि स्थूलदोषरहित, व्रतधारी, सामायिकब्रती, पर्वव्रती, प्रासुक-आहारी, रात्रिभोजनविरत, मैथुन-त्यागी, आरम्भत्यागी, संगत्यागी, कार्यानुमोदविरत और उद्दिष्टाहारविरत । स्वामी समंतभद्र ने सर्वप्रथम संखज में दिगम्बर परम्परा में श्रावकाचार पर स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना की। उनकी रत्नकरंड श्रावकाचार बहुत ही महत्वपूर्ण रचना है। उन्होंने सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन कीPage Navigation
1 2 3 4 5 6