Book Title: Shravak Dharm
Author(s): Premsuman Jain
Publisher: Premsuman Jain

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Page 5
________________ श्रावक दैनिक षट्कर्म श्रावक अपना सर्वागीण विकास निर्लिप्तभाव से स्वकर्त्तव्य का सम्पादन करते हुए घर में रहकर भी कर सकता हैं। दैनिक कृत्यों में षट्कर्मो की गणना की गई है। 1-देवपूजा- देवपूजा शुभोपयोग का साधन है। पूज्य या अर्च्य गुणों के प्रति आत्मसमर्पण की भावना ही पूजा है। पूजा करने से शुभराग की वृद्धि होती है, पर यह शुभराग अपने स्व को पहचानने में उपयोगी सिद्ध होता हैं पूजा के दो भेद हैं- द्रव्यपूजा और भावपूजा। अष्टदेवों से वीतराग और सर्वज्ञदेव की पूजा करना द्रव्यपूजा है और बिना द्रव्य के केवल गुणों का चिनतन और मनन करना भावपूजा है। भावपूजा में आत्मा के गुण ही आधार रहते हैं, अतः पूजक को आत्मानुभूति की प्राप्ति होती है। सरागवृत्ति होने पर भी पूजन द्वारा रागद्वेष के विनाश की क्षमता उत्पन्न होती है। पूजा सम्यग्दर्शनगुण को तो विशुद्ध करती ही है, पर वीतराग आदर्श को प्राप्त करने के लिए भी प्रेरित करती है। यह आत्मोत्थान की भूमिका है। 2. गुरुभक्ति- गुरु का अर्थ अज्ञान- अन्धकार को नष्ट करनेवाला है। यह गुरु तपस्वी और आरम्भपरिग्रहरहित होता है। जीवन में संस्कारों का प्रारम्भ गुरुचरणों की उपासना से ही सम्भव है। इसी कारण गृहस्थ के दैनिक षट्कर्मो में गुरुपास्ति को आवश्यक माना है। अतः गुरु के पास सतत निवास करने से मन, वचन, कायकी विशुद्धि स्वतः होने लगती है और वाक्संयम, इन्द्रियसंयम तथा आहारसंयम भी प्राप्त होने लगते हैं। 3-स्वाध्याय- स्वाध्याय का अर्थ स्व- आत्मा का अध्ययन–चिन्तन–मनन है। प्रतिदिन ज्ञानार्जन करने से राग के त्याग की शक्ति उपलबध होती है। स्वाध्याय समस्त पापों का निराकरण कर रत्नत्रय की उपलब्धि में सहायक होता है। बुद्धिबल और आत्मबल का विकास स्वाध्याय द्वारा होता है। स्वाध्याय द्वारा संस्कारों में परिणामविशुद्धि होती है और परिणामविशुद्धि ही महाफलदायक है। मन को स्थिर करने की दिव्यौषधि स्वाध्याय ही है। हेय- उपादेय और ज्ञेय की जानकारी का साधन स्वाध्याय है। स्वाध्याय यह पीयूष है जिससे संसाररूपी व्याधि दूर हो जाती है। अतएव प्रत्येक श्रावक को आत्मतन्मयता, आत्मनिष्ठा, प्रतिभा,मेधा आदि के विकास के लिये स्वाध्याय करना आवश्यक है। 4-संयम- इन्द्रिय और मन का नियमन कर संयम में प्रवृत्त होना अत्यावश्यक है। कषाय और विकारों का दमन किये बिना आनन्द की उपलब्धि नहीं हो सकती है। संयम ही ऐसी औषधि है, जो रागद्वेषरूप परिणामों को नियंत्रित करता है। संयम के दो भेद हैं- 1. इन्द्रियसंयम और 2. प्राणिसंयम। इन दोनों संयमों में पहले इन्द्रियसंयम का धारण करना आवश्यक है क्योंकि इन्द्रियों के वंश हो जाने पर ही प्राणियों की रक्षा सम्भव होती है। इन्द्रिय सम्बन्धी अभिलाषाओं,लालसाओं और इच्छाओं का निरोध करना इन्द्रिय संयम के अन्तर्गत है। विषय कषायों को नियंत्रित करने का एकमात्र साधन संयम है। जिसने इन्द्रियसंयम का पालन आरम्भ कर दिया है वह जीवननिर्वाह के लिये कम-से-कम सामग्री का उपयोग करता है, जिससे शेष सामग्री समाज के अन्य सदस्यों के काम आती है, संघर्ष कम होता है और

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