Book Title: Shravak Dharm Author(s): Premsuman Jain Publisher: Premsuman Jain View full book textPage 6
________________ विषमता दूर होती है। यदि एक मनुष्य अधिक सामग्री का उपभोग करे तो दूसरों के लिये सामग्री कम पड़ेगी, जिससे शोषण आरम्भ हो जायेगा। अतएव इन्द्रियसंयम का अभ्यास करना आवश्यक है प्राणिसंयम में षट्काय के जीवों की रक्षा अपेक्षित है। प्राणिसंयम के धारण करने से अहिंसा की साधना सिद्ध होती है और आत्मविकास का 5- आरम्भ होता है। 5-तप- इच्छानिरोध को तप कहते हैं। जो व्यक्ति अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं का निंयत्रण करता है, वह तप का अभ्यासी है। वास्तव में अनशन, ऊनोदर, आदि तपों के अभ्यास से आत्मा में निर्मलता उत्पन्न होती है। अहंकार और ममकार का त्याग भी तप के द्वारा ही सम्भव है। रत्नत्रय के अभ्यासी श्रावक को अपनी शक्ति के अनुसार प्रतिदिन तप का अभ्यास करना चाहिए। 6-दान- शाक्त्यनुसार प्रतिदिन दान देना चाहिए। सम्पत्ति की सार्थकता दान में ही है। दान सुपात्र को देने से अधिक फलवान होता है। यदि दान में अहंकार का भाव आ जाय तो दान निष्फल हो जाता है। श्रावक मुनि, आर्यिका, क्षुल्लिका, क्षुललक, ब्रम्हचारी, व्रती आदि को दान देकर शुभभावों का अजून करता है। ग्यारह प्रतिमाएं श्रावक अपने आचार के विकास के हेतु मूलभूत व्रतों का पालन करता हुआ सम्यग्दर्शन की विशुद्धि के साथ चारित्र में प्रवृत्त होता है। उसके इस चारित्रिक विकास या आध्यात्मिक उन्नति के कुछ सोपान हैं जो शास्त्रीय भाषा में प्रतिमा या अभिग्रहविशेष कहे जाते हैं। वस्तुतः ये प्रतिमाएँ श्रमणजीवन की उपलब्धि का द्वार है। श्रावकारचार के विकास की सीढ़ियाँ हैं / जो इन सोपानों का आरोहण कर उत्तरोत्तर अपने आचार का विकास करता जाता है वह श्रमणजीवन के निकट पहुँचने का अधिकारी बन जाता है। ये सोपान प्रतिमाएँ ग्यारह हैं 1. दर्शन प्रतिमा, 2. व्रत प्रतिमा, 3. .सामायिक प्रतिमा , 4. प्रोषध प्रतिमा, 5. सचित्तविरत-प्रतिमा, 6. दिवामैथुन या रात्रिभुत्तित्याग प्रतिमा, 7. ब्रम्हचर्य प्रतिमा, 8. आरम्भत्याग प्रतिमा, 9. परिगृहत्याग प्रतिमा, 10. अनुमतित्याग प्रतिमा, 11. उदिदष्टत्याग प्रतिमा।Page Navigation
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