Book Title: Shramanachar Parichayak Katipay Paribhashik Shabda
Author(s): Rameshmuni
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

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Page 2
________________ 203 | 10 जनवरी 2011 | | जिनवाणी | शब्दावलि को अकारादिक्रम से प्रस्तुत कर पाना इसलिये संभव नहीं है कि यहाँ शब्दकोष की रूपरेखा नहीं है, किन्तु अनिवार्य और प्रासंगिक शब्दों का अर्थ एवं आशय प्रस्तुत है। 1. श्रमण- जो संयम-साधना और तप आराधना में व्रत रूप श्रम करता है, वह श्रमण है। यह श्रमण शब्द की निरुक्ति है, जो उसकी उत्तम कार्य-जन्य प्रशस्तता और यशस्विता का परिज्ञापक है। श्लोक शब्द का वाच्य अर्थ भी ऐसा ही है। वह यश-कीर्ति का सूचक है। श्रमण को सर्वजन का अतिथि कहा गया है। जिसके भिक्षादि हेतु आगमन की कोई तिथि नहीं होती है, उसे अतिथि कहा जाता है। श्रमण इसी श्रेणी के अन्तर्गत है। चारित्र-जीव का स्वभाव में चरणशील और रमणशील रहना चारित्र" है। जब आत्मास्व-भाव में स्थित है, तब परभाव का स्वतः त्याग हो जाता है। चारित्र विधिमूलक विधा है। उसी का निषेध अर्थात् प्रतिषेध मूलक रूप वैभाविक परिणति का किंवा समग्र सावद्य-योगों का परित्याग है। जब अध्यात्म-साधक चारित्राधना में दीक्षित होता है, संयम-साधना में प्रवृत्त होता है तब वह “मैं सर्व सावद्य योगों का त्याग करता हूँ' यह जो अर्थगौरव से अन्वित भाषा है, वह परभाव से स्वभाव में आने का आख्यान है। 3. सामायिक - व्याकरण के दृष्टिकोण से सम, आय एवं इक प्रत्यय-पूर्वक ‘सामायिक' शब्द का गठन हुआ है। यह व्याकरण की तद्धित प्रक्रिया के अन्तर्गत समाहित है। 'सम' शब्द का अर्थ भी समत्व, समभाव अथवा आत्मस्वरूप है। आय का अर्थ प्राप्ति' है। जिस साधना की प्रक्रिया से विभावगत आत्मा स्वभाव में आती है। कर्मगत घनीभूत आवरणों से आच्छन्न आत्मा जब अपना विशुद्ध स्वरूप प्राप्त करती है, तब वह सामायिक है। सामायिक-साधना के व्यावहारिक रूप में पञ्चविध महाव्रत का मन, वचन, काय द्वारा, कृत, कारित और अनुमोदित के रूप में पालन किया जाता है। नवदीक्षित श्रमण जीवन पर्यन्त इनके पालन हेतु प्रतिज्ञाबद्ध होता है, कृत संकल्प हो जाता है। छेदोपस्थापनीय- इस शब्द में ‘छेद' और 'उपस्थापनीय” इन दोनों का योग है। व्याकरण के अनुसार यह चाहिए' वाचक ‘अनीयर् प्रत्यय के योग से गठित शब्द है। सातिचार और निरतिचार के रूप में इसके दो भेद हैं - साधुत्व अर्थात् संयम के मूल गुणों में किसी प्रकार का विघात अथवा छेद-भंग होने पर जब उसको पुनरपि दीक्षा दी जाती है, तो वह सातिचार छेदोपस्थापनीय नामक चारित्र है। निरतिचार में दोष का कोई स्थान नहीं है। इत्वरिक सामायिक के अनन्तर जब कुछ काल पश्चात् उसमें महाव्रतों का आरोपण किया जाता है, उसे दीक्षा दी जाती है, वह निरतिचार छेदापस्थपनीय है। आवश्यक- इसके मूल में अवश्य' शब्द है, जिसे किये बिना नहीं रहा जा सकता। अन्य शब्दों में, जो अपरिहार्य है, अतिशय रूप से अनिवार्य है, अवश्य करने योग्य धार्मिक अनुष्ठान का विधायक होने से इसे 'आवश्यक' कहा जाता है। जो गुणों को आत्मवशगत बनाता है, आत्मा में सद्गुणों को सन्निहित करता है, निष्पादित करता है, वह आवश्यक है।' इन्द्रिय एवं कषाय आदि भावशत्रु जिसके द्वारा जीते जाते 5. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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