Book Title: Shramanachar Parichayak Katipay Paribhashik Shabda
Author(s): Rameshmuni
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

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Page 1
________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी. 202 श्रमणाचार परिचायक कतिपय पारिभाषिक शब्द उपाध्याय श्री रमेशमुनि जी शास्त्री प्रस्तुत आलेख में उपाध्याय श्री ने श्रमणाचार से सम्बद्ध श्रमण, चारित्र, सामायिक, छेदोपस्थापनीय, आवश्यक आदि विभिन्न शब्दों की विवेचना की है। इससे श्रमण-जीवन से सम्बद्ध विभिन्न पहलुओं का बोध हो सकेगा। -सम्पादक श्रमण संस्कृति वह संस्कृति है, जो आस्था और व्यवस्था के दृष्टिकोण से शिरसि शेखरायमाण स्थान पर अतिशय रूप से शोभायमान है। सम्यक श्रम-साधना पर आधारित स्वावलम्बन एवं सद्गण प्रधान श्रद्धान श्रमण संस्कति का निर्दोष लक्षण है। प्रस्तुत संस्कृति से अनुप्राणित और अनुप्रीणित प्रत्येक सत्प्राणी अपन पौरुष के माध्यम से स्वयं कर्म-कर्ता है और स्वयं कृतधर्म के फल का भोक्ता है। इस परिप्रेक्ष्य में उसको किसी सत्ता अथवा शक्ति के कृपा-भाव की आकांक्षा कदापि नहीं रहती है। किसी के भी कृपाभाव का आकांक्षी होने पर उसे स्वावलम्बी बनने में व्यवधान समुत्पन्न होता है। श्रमण सर्वदा सर्वथा रूप से स्वाधीन होता है। वह समझपूर्वक अपनी श्रम-साधना के आधार पर उत्तरोत्तर आत्मिक विकास को उपलब्ध करता है। अतः यह पूर्णतः सिद्ध है कि श्रमण स्वयमेव पुरुषार्थ का सम्पादन कर स्व-पर के कल्याण में नित्यशः प्रवृत्त होता है। यह एक सत्यपूर्ण कथ्य है कि स्वाधीनता प्रधान सम्यक् आस्था की अपनी सर्वांग व्यवस्था भी होती है। इस व्यवस्था में किसी सत्ता किंवा शक्ति की वन्दना अथवा पर्युपासना करने का कोई विधान एवं प्रावधान नहीं होता है। आत्म-गुणों का सश्रद्ध स्मरण करना तथा उन्हें जान और पहिचान कर उनकी वन्दना एवं उपासना करना उसे सम्पूर्णतः अभिप्रेत रहा है। इस प्रक्रिया से अध्यात्म-साधक अपने अन्तरंग में प्रतिष्ठित आत्मिकशक्ति अथवा सत्ता के गुणों का जागरण और उज्जागरण करता है। श्रमण-चर्या का आत्म-विकास त्रिविध चरण में सम्पन्न होता है। जो पञ्चपद परमेष्ठी में 'गुरुपद' के रूप में प्रतिष्ठित है और वे साधु पद, उपाध्याय पद एवं आचार्य पद के रूप में उपास्य हैं। इनकी वन्दना करने से साधक के आत्म-विकास की स्वयमेव वन्दना है। यह स्पष्ट है कि गुरुपद में प्रथम पद के रूप में साधुपद' आत्मिक-विकास की प्राथमिक प्रयोगशाला है। साधु सर्वप्रथम जागतिक जीवन की भूमिका से सर्वथा-विरक्त होकर अपनी साधना सम्पन्न करता है। साधु अर्थात् श्रमण की आचार-संहिता से सम्बन्धित बहुविध शब्दावली है। शब्द स्वयं में एक शक्ति है और अभिव्यक्ति उस शक्ति का परिणाम है। श्रमण-चर्या का प्रत्येक शब्द वस्तुतः अपनी अर्थ-सम्पदा की अपेक्षा से अतीव-विशिष्ट है। उस आर्थिक गौरव और वैशिष्ट्य की अपनी परिभाषा है। उसी शब्दावलि से सन्दर्भित कतिपय शब्दों की परिभाषा को परि-स्पष्ट करना वस्तुतः मेरा व्यक्तिगत विनम्रता पुरस्सर अभिप्रेत है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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