Book Title: Shraman Tirtha Ka Jain Dharma ki Prabhavana me Avadan Author(s): Divyaprabhashreeji Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 5
________________ (२४) भगवान अरिष्टनेमि के शासन काल में आर्याओं की संख्या चालीस हजार थी (२५) भगवान पाश्वनाथ के शासन काल में साध्वियों की उत्कृष्ट सम्पदा अड़तीस हजार थी (२६) भगवान महावीर के शासन काल में श्रमणियों की उत्कृष्ट सम्पदा छत्तीस हजार थी (२७) उपयुत विवेचन से किस तीर्थंकर के शासनकाल में कितनी श्रमणियाँ हुई थी, उसका स्पष्ट रूप से परिज्ञान हो जाता है। नारी पर्याय का उत्कष्ट स्वरूप आर्यिका के रूप में भी है. जिसका अर्थ सज्जनों के द्वारा जो अर्चनीया, पूज्यनीया होती है जो निर्मल चारित्र को धारण करती है वह आर्यिका का है और आर्यिका का अपरनाम साध्वी है। जो अध्यात्म साधना का यथाशक्ति परिपालन करती है, उसे साध्वी कहते हैं। शम, शील, संयम और श्रुत ही साध्वी का यथार्थ स्वरूप है और यह एक ऐसी परम निर्मल तारिका है जो अपनी साधना की प्रभा से भावुक आत्माओं का प्रभास्वर कर देती है। उनके अन्तरंग और बहिरंग जीवन में आमूलचूल परिवर्तन भी करती है। श्रमणी जहाँ एक ओर स्वकल्याण में सर्वात्मना निरत रहा करती है। जिस साधना मार्ग पर नित्य निरन्तर अग्रसर होती हुई लक्ष्य की ओर प्रगतिशील रहती है और वह दूसरी ओर जैन धर्म की प्रभावना में भी अपना महत्त्वपूर्ण अवदान देती है। जैन धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों की प्राणप्रतिष्ठा जनता जनार्दन के लिए करती है। इतना ही नहीं वह उन्हें व्यसनमुक्ति का पाठ भी पढ़ाती है। सदाचार जीवन जीने की सत्प्राण प्रेरणा प्रदान करती है, जिससे उनका जीवन यथार्थ में जीवन बन जाता है और वह जीवन एक ऐसा प्रेरणास्पद होता है कि परिवार, समाज और राष्ट्र भी गौरवान्वित होता है। श्रमणी स्वयं योग्यता सम्पन्न होती है जिससे उसकी प्रवचनकला भी महत्वपूर्ण होती है। उसका प्रभाव भी विलक्षण है जिससे श्रोतागण भी उस प्रवचन कला के प्रभाव-प्रवाह में डबता तैरता रहता है। श्रोता अध्यात्म प्रधान प्रवचन सुधा का पान करता हुआ बहिर्जगत् से हटकर अन्तर्जगत् में पहुँच जाता है। यही उसके प्रवचन कला का अचिन्त्य प्रभाव साकार रूप में दिखाई पड़ता है। श्रमणी अपने जीवन में उत्कृष्ट रूप से तपः साधना भी करती है जिससे जैन धर्म की प्रभावना को और अधिक व्यापकता प्राप्त होती है श्रमणी स्वयं तपः साधना में प्रलम्बकाल तक संलग्न रहने के साथ ही अन्य भव्यात्माओं को भी तपस्या की महत्ती प्रेरणा देती है जिससे भव्य आत्माएँ अपनी जीवन को तपश्चरण के सांचे में ढाल देते है। तप जहाँ एक ओर जैन धर्म की प्रभावना सम्पादन में सक्षम है वहाँ दूसरी ओर तप जन्म जन्मान्तरों के संचित/बन्धित कर्म पुद्गलों को भी क्षीण कर देता है। कर्म जब आत्यन्तिक रूप से क्षय हो जाते हैं तब आत्मा परम शाश्वत पद को प्राप्त कर लेता है। __कतिपय श्रमणियां अहिंसा धर्म की विजय पताका फैलाती हुई हिंसा की परम्परा को सदा के लिए समाप्त कर देती है। समाजगत हिंसा प्रधान रूढ़ियों का उन्मूलन कर देती है और अहिंसात्मक स्वस्थ परम्परा का आविर्भाव करती है। श्रमणियाँ अध्यात्म योग के क्षेत्र में भी दक्षता प्राप्त होती है। अध्यात्मयोग उनका निजी रस होता है और यह रस धारा स्वयं को आप्लावित करती हुई दूसरों को भी लाभान्वित कर देती है। अहिंसा और अध्यात्मयोग ये दोनों अपने आप में महान् तत्व हैं। श्रमणी जगत ने इनके द्वारा भी जैन धर्म की प्रभावना/अभिवृद्धि में मूल्यवान् योगदान दिया है। २४ प्रवचन सारोद्धार १७ गाथा ३३५ - ३९ प्रवचन सारोद्धार १७ गाथा ३३५ - ३९ प्रवचन सारोद्धार १७ गाथा ३३५ - ३९ प्रवचन सारोद्धार १७ गाथा ३३५ - ३९ २६ (३७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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