Book Title: Shraman Tirtha Ka Jain Dharma ki Prabhavana me Avadan Author(s): Divyaprabhashreeji Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 1
________________ श्रमणी तीर्थ का जैन धर्म की प्रभावना में अवदान (श्री कुसुमवती जी म. की सुशिष्या डॉ. साध्वी दिव्यप्रभा) मानव इस विराट् विश्व का एक चिन्तनशील एवं मननशील प्राणी है। इसकी महिमा और गरिमा वस्तुतः वर्णातीत एवं वर्णनातीत है। मानव और पशु जगत् में बहुविध समानताएं परिलक्षित होती है दोनों प्राणी हैं, इसलिए जीवन निर्वाह हेतु आहार अपेक्षित है। दोनों भय ग्रस्त है निद्रादेवी की आराधना में भी सर्वात्मना समर्पित है। अनेक प्रकार की सदृशता होते हुए भी एक ऐसी विलक्षण विशेषता है जिसके आधार पर यह स्पष्टतः प्रगट है कि पशुजगत् से मानव सर्वश्रेष्ठ है और सर्वज्येष्ठ है। वह विशिष्ट विशेषता यही है कि मानव अपने जीवन में धर्माचरण कर सकता है । धर्म अपने आप में मंगलस्वरूप है और वह प्राणिमात्र के योगक्षेम का आधार है एवं वह कल्याणप्रद है। धर्म वस्तुवृत्या त्रिकालाबाधित सत्य है। अखण्ड एवं शाश्वत सत्य है। उक्त कथन को कथमपि नकारा नहीं जा सकता। इतना ही नहीं धर्म को देश काल क्षेत्र और सम्प्रदाय की संकुचित परिधियों में निबद्ध नहीं किया जा सकता । प्रस्तुत, शब्द इतना व्यापक और इतना विराट् है कि धर्म शब्द के उच्चारण मात्र से ही व्यक्ति उसका न केवल अर्थअपितु अभिप्राय भी हृदयंगम कर लेता है और आत्मसात् भी कर लेता है। धर्म आदि नहीं ऋषभदेव हैं। उन्होंने जैन धर्म का आदिकर्ता कहा औरं अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर है। प्रत्येक तीर्थंकर चार तीर्थों की संस्थापना करता है। इसी लिए वे तीर्थंकर कहलाते हैं। तीर्थ की संख्या शाश्वत है वे चार हैं। जो इस प्रकार है - श्रमण, श्रमणी श्रावक और श्राविका १ अनादि है। जैनधर्म के अभिमतानुसार इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर धर्म का प्रवर्तन किया है। अतः कालचक्र के आधार पर भगवान् ऋषभ देव को उक्त चार भेदों में प्रथम के दो भेद अणगार धर्म के प्रतीक है और अन्तिम के दो भेद आगार धर्म के परिचायक है। इस प्रकार धर्म के दो भेद हैं एक आगार धर्म और दूसरा अणगार धर्म । २ प्रस्तुत निबन्ध की सीमित पृष्ठ संख्या को ध्यान में रखते हुए यहाँ पर श्रमणी धर्म के सन्दर्भ में आलेखन करना हमारा प्रतिपाद्य विषय है। श्रमणी नारी जाति का सर्वाधिक परम विशुद्ध स्वरूप है। इसी स्वरूप में स्थित नारी अध्यात्मिक जगत में समुत्कर्ष करती है परमपद मोक्ष को प्राप्त कर लेती है। श्रमणी बहिर्जगत् से हट कर अन्तर्जगत् में विचरण करती है। वह तन की दृष्टि से यहाँ पर है पर मन की दृष्टि से वह मोक्ष में है। वह अपने जीवन में संयम धर्म की अखण्ड रूप से आराधना करती है। समता धर्म को आत्मसात कर लेती है राग और १- भगवती सूत्र २०/८ २ - स्थानांग सूत्र स्था. २ Jain Education International (३३) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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