Book Title: Shraman Tirtha Ka Jain Dharma ki Prabhavana me Avadan Author(s): Divyaprabhashreeji Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 3
________________ श्रमणी वस्तुतः अपने अन्तर ज्योति के प्रकाश में इतनी दिव्य है कि उसका यथा तथ्य वर्णन करना सम्भव प्रतीत नहीं होता। वह मानव चेतना के विकास के लिए महान् उदात्त शाश्वत संदेश प्रदान करती है। वास्तव में वह पूज्या है। आदरणीया है। नमस्करणीया है। प्राचीन इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर ऐसे असंख्य उदाहरण है जिनका विस्तार से वर्णन करना शक्ति और मति परे है। आर्या शिरोमणि चन्दना, मृगावती, अञ्जना राजीमती सुलसा आदि अनेक श्रमणियाँ अध्यात्म की सर्वोच्च भूमिका पर पहुँच गयी और वे आत्मा से परमात्मा के रूप में हो गयी। श्रमणी का उतना ही स्थान है जितना स्थान श्रमण का है। क्योंकि श्रमण की भांति श्रमणी भी एक तीर्थ स्वरूपा है। दोनों के नियम उपनियम भी समानता लिए हुए हैं। जैसे श्रमण पंच महाव्रत का आराधक है श्रमणी भी पंचमहाव्रत की आराधिका होती है। श्रमण बावीस परिषहों पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करता है और श्रमणी भी बावीस परिषह को जीतने में अपना पराक्रम दिखाती है। पाँच समिति और तीन गुप्ति की परिपालना श्रमण और श्रमणी दोनों करते हैं। श्रमण की भांति श्रमणी भी प्रातः सायं षडावश्यक की साधना में संलग्न रहती है। दशविधयति धर्म श्रमण और श्रमणी दोनों के आचरणीय है। श्रमण संघ में जिस तरह श्रमणों की व्यवस्था निर्धारित है, उसी तरह श्रमणियों की भी व्यवस्था रही है। श्रमणी संघ की समुत्कर्ष का हेतु और सुव्यवस्ता बनाये रखने के लिए कतिपय पदों का उल्लेख है। वे पद इस प्रकार हैं - (१) प्रवर्तिनी (२) गणावच्छेदिनी (३) अभिषेका और (४) प्रतिहारी। . इन पदों के बारे में सविस्तृत विवेचना न करती हुई संक्षेप में ही इन पदों का स्पष्टीकरण और स्वरूप प्रस्तुत कर रही हूँ। (१) प्रवर्तिनी ३ - श्रमणी संघ में प्रवर्तिनी का जो स्थान है वह वस्तुतः महत्वपूर्ण है। उसकी अपनी गरिमा और महिमा है। श्रमणी की दीक्षा पर्याय कम से कम आठ वर्ष की होनी चाहिये। वह आचार में कुशल, प्रवचन में प्रवीण, संक्लिष्ट चित्त वाली स्थानांग और समवायांग आदि आगमों की ज्ञाता होना आवश्यक है। प्रवर्तिनी पद के लिए प्रधान आर्या गणिनी महत्तरा आदि शब्द भी प्रयुक्त हुए है, जो उसके निर्मल एवं तेजस्वी व्यक्तित्व को उजागर कर देते हैं। आठ वर्ष की दीक्षा पर्याय वाली प्रवर्तिनी के लिए यह भी बताया है कि वह एक साध्वी के साथ शीत और उष्ण काल में विचरण नहीं कर सकती। कम से कम दो साध्वियाँ आवश्यक हैं। (२) गणावच्छेदिनी - जो स्थान श्रमण श्रमणी में गणावच्छेद का रहा है वही स्थान श्रमणीसंघ में गणावच्छेदिनी का रहा है गणावच्छेदिनी पद धारिणी श्रमणी को शीत एवं उष्ण काल में तीन अन्य साध्वियों के साथ विचरण करना चाहिए वर्षावास में उसके साथ चार साध्वियाँ आवश्यक है। (३) अभिषेका - श्रमण संघ में जो स्थान स्थविर का है वही स्थान श्रमणी संघ में अभिषेका का रहा है, कही-कही पर अभिषेका के स्थान पर गणिनी के समकक्ष रखा गया है। (४) प्रतिहारी - निग्रन्थी प्रतिहारी द्वारपालिका के रूप में मानी गई है। वह प्राथमिक की तरह होती है, जहाँ कहीं ऐसे स्थलों पर रुकना पड़ता है। जहाँ साध्वी की सुरक्षा का प्रश्न होता है वहाँ वह प्रतिहारी द्वारपालिका के रूप में रहकर अन्य श्रमणियों की रक्षा करती थी। ३- व्यवहार सूत्र (३५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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