Book Title: Shraman Sanskruti ka Hridaya evam mastishka
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 4
________________ जैन संस्कृति का आलोक संसार की वस्तुएं ससीम है और मानव मन की पर दृष्टि रखकर सापेक्ष कथन करता है। वह सदाग्रही है, इच्छाएं असीम है। उन दोनों का मेल नहीं हो सकता। एकांती और हठी या दुराग्रही नहीं। बौद्धदर्शन प्रत्येक तृष्णा ऐसी प्यास है जो संग्रह से शांत किये जाने पर और वस्तु को अनित्य और नश्वर मानता है तो दूसरी ओर तीव्र होती है। तृष्णा मानव की अनेक उत्तम शक्तियों का अद्वैतवाद वस्तु को नित्य और अविनाशी मानता है। विकास नहीं होने देती। चार्वाक पुद्गल या वस्तु के अतिरिक्त परलोक, पुनर्जन्म या आत्मा जैसी किसी मान्यता में विश्वास नहीं रखता। ___“जैन श्रमण परिग्रह को मन-वचन और कर्म से न वह विशुद्ध भौतिकतावादी और प्रत्यक्षदर्शी है। स्पष्ट है स्वयं संग्रह करता है, न दूसरों से करवाता है और न करने कि उक्त तीनों धारणाएं ऐकान्तिक और अतिवादी है। वाले का अनुमोदन ही करता है। वह पूर्ण रूप से अकिंचन/ स्याद्वाद संशयवाद नहीं है। संशयवाद में दोनों कोटियाँ अनासक्त और असंग होता है। जैन श्रमण का एक नाम अनिश्चित होती है। जवकि स्याद्वाद में दोनों कोटियाँ निर्ग्रन्थ है।" निश्चित होती है। जैसे - यह सांप है या रस्सी? द्रव्य अनेकांत दर्शन दृष्टि से वस्तु नित्य है और पर्याय दृष्टि से अनित्य भी है। अनेकांती 'भी' में विश्वास रखता है जबकि एकान्ती 'ही' वस्त अनेकान्तात्मक है। एक ही वस्तु को अनेक में। एक आपेक्षिक दृष्टि से कथन करता है तो दूसरा वस्तु दृष्टिकोणों से देखना-समझना अनेकांत है। एक ही वस्तु के प्रत्यक्ष एक पक्ष पर ही आग्रह करता है। के संबंध भेद से अनेक रूप हो सकते हैं। यथा एक ही व्यक्ति अपेक्षा भेद से पुत्र है, पिता है, पति है, शिष्य है ___ सप्तभंगी द्वारा भी उक्त सापेक्षवाद को स्पष्ट किया गया है। एक ही वस्तु को सात भंगों अर्थात् प्रकारों से और गुरु भी है। कहा है - समझा जा सकता है। इसमें वस्तु की पर्याय अनेक का अर्थ है एक से अधिक । यह संख्या दो दशा का महत्व है। अस्ति, नास्ति, अस्तिनास्ति, अवक्तव्य भी हो सकती है और दो से अधिक भी। अंत का अर्थ (४ भेद) अस्ति अवक्तव्य. नास्ति अवक्तव्य. अस्ति है धर्म-अवस्था विशेष । वस्तु के अनेक धर्मों को एक नास्ति अवक्तव्य (३ भेद) साथ समझानेवाली अर्थ-व्यवस्था अनेकांत है। जब कि सप्तभंगी के स्पष्टीकरण के लिए घट का उदाहरण वस्तु के अनेकांत स्वरूप को समझाने वाली सापेक्ष कथन प्रचलित हैपद्धति स्याद्वाद है। व्यक्ति एक समय में वस्तु के अनेक पक्षों को देख समझ तो सकता है, परंतु वह केवल एक ही । १. स्यादस्ति - प्रत्येक वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल पक्ष को व्यक्त कर सकता है। (एक समय में) और भाव (अवस्थाविशेष की अपेक्षा से) सत् है। स्यात् शब्द का प्रयोग वस्तु की पर्यायों में / अवस्थाओं २. स्यान्नास्ति - प्रत्येक वस्तु पर-द्रव्य की अपेक्षा से में किया जाता है। पर्याय परिवर्तनशील होती हैं। गुण असत् है। वस्तु के अनुजीवी होते हैं। अनेकांत दर्शन वस्तु की गुण- ३. स्यादस्तिनास्ति - उक्त दोनों दृष्टियों की अपेक्षा से पर्याय परक स्थिति का पूर्ण अध्ययन करके उसकी संपूर्णता है भी, नहीं भी। १. जैन आचार - सिद्धांत और स्वरूप -पृ. ६५ - श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री। १२६ | श्रमण संस्कृति का हृदय एवं मस्तिष्क Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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