Book Title: Shraman Sanskruti ka Hridaya evam mastishka
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 2
________________ जैन संस्कृति का आलोक इस आधारभूत विवेचन के साथ यह जानना अत्यंत समीचीन होगा कि श्रमण संस्कृति के प्राणभूत विशिष्ट गुण कौन-कौन से हैं उसका हृदय और मस्तिष्क क्या है? श्रमण संस्कृति के हृदय के रूप में अहिंसा धर्म प्रतिष्ठित है और उसके मस्तिष्क के रूप में अनेकांत दर्शन प्रतिष्ठित है। अहिंसा समस्त जैनाचार का पर्यायवाची शब्द है तो अनेकांत समस्त जैन दर्शन या विचारधारा का पर्यायवाची शब्द है। अहिंसा वे ही आदि श्रमण थे अतः श्रमणों या जैनों की संस्कृति तीर्थंकरों की संस्कृति है। यह आत्मोन्नयन और त्याग तपस्या की संस्कृति है। 'श्रमण' शब्द का अर्थ है श्रम, शम, सम का जीवन जीनेवाला संत या मनि । श्रम अर्थात तपश्चर्या एवं साधना, शम स्वयं के राग-द्वेष का शमन कर शांत रहना और सम का अर्थ है सभी जीवों के प्रति समभाव रखना। जैन श्रमण इन तीन गुणों से युक्त होते थे। संस्कृत भाषा का श्रमण शब्द अपभ्रंश और प्राकृत में 'समण' के रूप में प्रचलित है। वर्तमान में जिसे हम आत्म-धर्म या अध्यात्म कहते हैं। यह वही श्रमणधर्म है। यही श्रमण संस्कृति का प्रतीक है। प्रत्येक धर्म का एक दार्शनिक पक्ष होता जो उसकी मान्यताओं का पोषक होता है। जैन धर्म का दार्शनिक पक्ष है अनेकांतवाद । इस दर्शन के माध्यम से हम सृष्टि, तत्त्वनिरुपण और व्यक्ति स्वातंत्र्य को भलीभांति समझ सकते हैं। जैन धर्म की संरचना नहीं हुई, वह सनातन है, उसे सुधारवादी और परवर्ती धर्म कहना मात्र अज्ञान है। प्रवचनसार के चारित्राधिकार में 'श्रमण' शब्द की व्याख्या इस प्रकार है -- “पडिवज्जदु सामण्णं जदि इच्छदि दुःख परिमोक्खं"'। अर्थात् हे भद्र! यदि तू दुःखों से मुक्त होना चाहता है तो श्रामण्य-मुनि पद स्वीकार कर । प्रवचनसार के चारित्राधिकार की २६वीं, ३२वीं तथा ४१वीं गाथाओं में समण शब्द का अत्यंत सटीक प्रयोग हुआ है। श्रमण के गुण और चारित्र का बहुत तर्क संगत एवं हृदयस्पर्शी वर्णन वहाँ किया है। अतः स्पष्ट है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का निश्चल धारी ही श्रमण कहलाता है। इसी रलत्रय की पूर्णता मोक्ष प्राप्ति का सशक्ततम आधार है। जैन धर्म में अहिंसा समस्त उत्कृष्ट आचार संहिता का पर्याय है। वह केवल जीव की रक्षा मात्र तक सीमित नहीं है। अहिंसा में शेष चार व्रत पूर्णतया गर्भित है। अपरिग्रह तो अहिंसा धर्म का मुकुट है। इसके बिना वह पूर्ण नहीं हो सकती। मन-वाणी और कर्म में इसकी एक रूपता प्रकट होनी चाहिए। “अहिंसा की विशाल विमल धाराएं प्रांतवाद, भाषावाद, पंथवाद और संप्रदायवाद के क्षुद्र घेरे में कभी आबद्ध नहीं हुई है। न किसी व्यक्ति विशेष की धरोहर ही रही है। यह विश्व का सर्वमान्य सिद्धान्त है। भगवान् महावीर ने अहिंसा को भगवती कहा है।"२ जैन आगमों के अनुसार भगवान् ऋषभदेव और भगवान् महावीर ने पांच महाव्रतात्मक धर्म का निरुपण किया और शेष २२ तीर्थंकरों ने चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया। इस विविध परंपरा से फलित यह हुआ कि धर्म का मौलिक रूप अहिंसा है। सत्य आदि उसका विस्तार है। इसलिए आचार्यों ने लिखा है- “अवसेसा तस्स रक्खणा" शेष व्रत अहिंसा की सुरक्षा के लिए है।" निश्चय दृष्टि से आत्मा ही अहिंसा है और वही हिंसा १. प्रवचनसार - चारित्राधिकार '१' २. अहिंसा तत्वदर्शन - पृ.३ लेखक मुनि नथमल | श्रमण संस्कृति का हृदय एवं मस्तिष्क १२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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