Book Title: Shraman Sanskruti ka Hridaya evam mastishka Author(s): Ravindra Jain Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf View full book textPage 5
________________ साधना का महायात्री: श्री समन मनि 4. स्यादवक्तव्य - हाँ, न, की दोनों अवस्थाओं को अपनाने से सुलझ सकती हैं। नय एक व्यावहारिक दृष्टि एक साथ नहीं कहा जा सकता। बोलने का क्रम है। यह वस्तु के पर्याय पक्ष को महत्व देकर सभी दृष्टियों होता है। दोनों को एक कहना अवक्तव्य है। में प्रयोगात्मक समभाव पैदा करती हैं। 5. स्यादस्ति अवक्तव्य - किसी अपेक्षा से घट है निष्कर्षतः यह स्पष्ट है कि श्रमण संस्कृति का हृदय और अन्य अपेक्षा से अवक्तव्य है। अहिंसा है और मस्तिष्क है अनेकांत / ये दोनों एक दूसरे 6. स्यान्नास्ति अवक्तव्य - किसी अपेक्षा से घट नहीं। के पूरक है। जैन दर्शन आदर्शमूलक अप्रायोगिक अभेदवाद _ है और किसी अपेक्षा से अवक्तव्य है। को न मानकर भेदवाद को मानता है। सामान्यतया वह 7. स्यादस्ति-नास्ति अवक्तव्य - अपेक्षा से है, नहीं है अविरोधी है। यह दृष्टि सापेक्ष सत्य पर आधारित है। और अवक्तव्य है। ____ “अनेकांतदृष्टि यदि आध्यात्मिक मार्ग में सफल हो . अनेकांत दर्शन का प्राण 'नय' है। 'नय' का अभिप्राय सकता है और अहिंसा का सिद्धान्त यदि आध्यात्मिक है वस्तु के वर्तमान पक्ष को ध्यान में रखकर बात करना। कल्याण का साधन हो सकता है, तो यह भी मानता इसमें अन्य दर्शनों का समन्वय हो जाता है। समभाव आ चाहिए कि ये दोनों तत्त्व व्यावहारिक जीवन का श्रेय जाता है। विश्व की सभी समस्याएं इस दृष्टिकोण को अवश्य कर सकते हैं।" 1. अनेकांतदर्शन पृष्ठ - 26 लेखक-पं. सुखलाल संघवी NE Sawal PAR ANSAR animal DEEWANATIMESENA 20p SHARE SalNews 0 डॉ. रवीन्द्र कुमार जैन हिन्दी के श्रेष्ठ कवि, लेखक एवं साहित्यकार हैं। आपका जन्म झांसी में सन् 1625 में हुआ। आप एम.ए., पी.एच.डी. एवं डी.लिट्. उपाधियों से सम्मानित हैं। आपने 35 वर्षों तक अनेक कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों में स्नाकोत्तरीय अध्यापन का कार्य किया है तथा 35 छात्रों को पी.एच.डी. करवाई है। आपके लगभग 200 निबंध विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चके हैं। आपने समीक्षा एवं शोध से सम्बन्धित 20 पुस्तकों का प्रणयन किया है। -सम्पादक Tribha weARMANCE MEETD जीवन में मोक्ष की बात तो दूर रही, जहां संस्था और समाज के सदस्यों में स्वच्छंदता आ जाय तो समाज नहीं चलता, स्वच्छंदता के कारण देश की व्यवस्था भी छिन्न-भिन्न हो जाती है। कर्म-बन्धन से वही मुक्त हो सकता है जो अपनी स्वच्छंदता को रोक लेता है। जहाँ स्वच्छंदता आ जाती है वहाँ धर्म धर्म नहीं, तप तप नहीं रहता। - सुमन वचनामृत 130 श्रमण संस्कृति का हृदय एवं मस्तिष्क | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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