Book Title: Shraman Sanskruti ka Hridaya evam mastishka Author(s): Ravindra Jain Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf View full book textPage 3
________________ साधना का महायात्री श्री सुमन मुनि है। अप्रमत्त आत्मा अहिंसक है और जो प्रमत्त है वह नहीं करता। सच्चा अहिंसक पहले स्वयं की आत्मा को हिंसक है। निर्मल करता है तभी वह दूसरों के लिए आदर्श बनता है। “आया चेव अहिंसा आया हिंसेति निच्छओ एसो। अहिंसा आत्मा को परखती है। सच्चाई उसको तेज करती जो होइ अप्पमत्तो अहिंसओ हिंसओ अरिओ।।" है। जहाँ ये नहीं, वहाँ व्यक्तित्व ही नहीं; धर्म तो दूर की श्रामणी अहिंसा निषेधात्मकता से उठकर सक्रिय बात है। आत्म शोधक ही दूसरों को उबार सकता है।" विधानात्मकता में परिणत होती है। यह केवल हिंसा न अपरिग्रह करना मात्र नहीं है, बल्कि दुःखी प्राणियों में समभाव और यथासंभव सह अस्तित्व प्रदान करने का संकल्प भी है। अपरिग्रह अर्थात् इच्छाओं, अधिकारों और वस्तु आज के विश्व को इस प्रकार की रक्षापरक, मैत्रीपरक धन-धान्यादि का असंग्रह सच्चे अहिंसक के लिए आवश्यक और समभावी अहिंसा की महती आवश्यकता है। मानव है। यह असंग्रह भाव क्रिया के स्तर पर हो तभी पूर्ण हिंसा, झूठ, चोरी, लुटेरापन, कपट और शोषण जैसी होता है। स्थूल रूप से त्याग और भावना के स्तर पर यदि आसक्ति बनी रहे, तो वह अपरिग्रह नहीं हैं। पाप विभावात्मक अवस्था में बहुत देर तक नहीं रह सकता। उसे आत्मा की सहज, शांत एवं समभावी अवस्था में का मूल जन्म तो मन में ही होता है। क्रिया तो मात्र अनुचरी है। मन का पाप क्रिया में परिणत न भी हो, तब आना ही होगा। यही उसकी स्वाभाविक परिणति है। भी पाप का बंध होता है। _ विश्व के सभी धर्मों (हिंदू धर्म, इस्लामधर्म, ईसाईधर्म, आज समस्त विश्व का संघर्ष मूलतः परिग्रह एवं सिक्ख धर्म, बौद्ध धर्म आदि) ने अपनी आचार संहिता में अपरिग्रह अर्थात् मूलभूत-न्यूनतम सुविधाओं का विषमीकरण अहिंसा को महत्व दिया है, परंतु श्रमण परंपरा ने अहिंसा है। हमारी पूंजीवादी व्यवस्था में धनवान अधिक धनवान हो का जो व्यापक, गंभीर एवं सार्वभौम तथा सार्वकालिक रहा है और गरीब अधिक गरीब हो रहा है। साम्राज्यवाद स्वरूप स्थिर किया है वह अनुपम एवं अद्वितीय है। को परास्त किया जा सकता है परंतु पूंजीवाद को नहीं श्रमण पूर्ण अहिंसक होता है तो श्रमणोपासक श्रावक क्योंकि यह वेतसी वृत्ति का जीवन जीना भी जानता है। सीमित रूप से पूर्ण अहिंसक होता है। पूर्ण अहिंसा मन यह मक्कारी में निपुण होता है। यह शोषण और हत्याएं वचन और शरीर की एकता के साथ तथा कृत, कारित करता है और अनाथालय चलाता है, मंदिर बनवाता है। और अनुमोदन के साथ पाली जाती है । परिग्रही होकर कोई अहिंसक नहीं हो सकता, हो भी सका सच्चा अहिंसक भीतर से ईमानदार होता है। वह तो आंशिक रूप से ही। अपरिग्रह अहिंसा की पहली और अन्तर्मुखी दृष्टिवाला होता है। बहिर्मुखी दृष्टिवाला व्यक्ति । अनिवार्य शर्त है। सच्चा त्यागी अपरिग्रही पुत्रैषणा, वित्तैषणा अवसरवादी होता है। उसके मन-वचन और क्रिया में और लोकैषणा से सर्वथा मुक्त रहता है। वह गृहस्थ भी हो एकरूपता नहीं होती। अहिंसक स्वभाव से अहिंसक होता तो जल में कमल की तरह रहता है। वह तो अपने शरीर है, वह निष्काम कर्मयोगी होता है, वह फल-आशा कभी को भी परिग्रह मानता है। १. हरिभद्र कृत अष्टक से २. अहिंसा तत्व दर्शन पृ. १०६ - मुनि नथमल १२८ श्रमण संस्कृति का हृदय एवं मस्तिष्क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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