Book Title: Shraman Mahavira
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 10
________________ की अज्ञात दिशाएं प्रकाश में आयी हैं । साधना के अनेक नए रहस्य उद्घाटित हुए ___बौद्ध साहित्य में भगवान् बुद्ध की वाणी के साथ घटनाओं की लम्बी शृखंला है। उससे उनकी उपदेश-शैली सरस और सहज-सुबोध है । भगवान् महावीर की वाणी के साथ घटनाओं का योग बहुत विरल है। फलतः उनकी उपदेश-शैली अपेक्षाकृत कम सरस और दुर्बोध लगती है। मैंने इस स्थिति को ध्यान में रखकर भगवान् की उपदेश-शैली को घटनाओं से जोड़ा है। इसमें मैंने कोरी कल्पना की उड़ान नहीं भरी है। भगवान् की वाणी में जो संकेत छिपे हुए हैं, उन्हें अन्तर्दर्शन से देखा है और उद्घाटित किया है। ___कथावस्तु के विस्तार का आधार कर्म बनता है। निष्कर्म के आधार पर उसका विस्तार नहीं होता। सामान्यतः यह धारणा है कि भगवान् महावीर निष्कर्म के व्याख्याता और प्रयोक्ता थे। यह सत्य का एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि भगवान् महावीर उत्थान, कर्म बल, वीर्य पुरुषार्थ और पराक्रम के प्रवक्ता थे। वे अकर्मण्यता के समर्थक नहीं थे। उनका कर्म राज्य-मर्यादा के साथ नहीं जुड़ा। इसलिए राज्य के संदर्भ में होने वाला उनके जीवन का अध्याय विस्तृत नहीं बना। उनका कार्यक्षेत्र रहा अन्तर्जगत् । यह अध्याय बहुत विशद बना और इससे उनके जीवन की कथावस्तु विशद बन गई। उन्होंने साधना के बारह वर्षों में अभय और मैत्री के महान् प्रयोग किए। वे अकेले घूमते रहे । अपरिचित लोगों के बीच गए। न कोई भय और न कोई शत्रुता । समता का अखण्ड साम्राज्य । कैवल्य के पश्चात् भगवान् ने अनेकान्त का प्रतिपादन किया। उसकी निष्पत्ति इन शब्दो में व्यक्त हई - सत्य अपने आप में सत्य ही है। सत्य और असत्य के विकल्प बनते हैं परोक्षानुभूति और भाषा के क्षेत्र में। उसे ध्यान में रखकर भगवान् ने कहा- जितने वचन-प्रकार हैं, वे सब सत्य हैं, यदि सापेक्ष हों। जितने वचन-प्रकार हैं, सब असत्य हैं, यदि निरपेक्ष हों। उन्होंने सापेक्षता के सिद्धान्त के आधार पर अनेक तात्विक और व्यावहारिक ग्रन्थियों को सुलझाया। भगवान् के जीवन-चित्र इतने स्पष्ट और आकर्षक हैं कि उनमें रंग भरने की जरूरत नहीं है। मैंने इस कर्म में चित्रकार की किसी भी कला का उपयोग नहीं किया है। मैंने केवल इतना-सा किया है कि जो चित्र काल के सघन आवरण से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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