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प्रो० पाठकके मतका विरोध करते हुए यह सिद्ध किया है कि शिवकुमार महाराज कदम्बवंशी शिवमृगेशवर्मा नहीं, किन्तु पल्लववंशी शिवस्कन्दवी होने चाहिए। स्कन्द, कुमार और कार्तिकेय षडाननके नामान्तर हैं । अतएव शिवस्कन्द और शिवकुमार दोनों निस्सन्देह एक हो सकते हैं। पल्लववंशी राजा
ओंकी राजधानी काञ्चीपुर या वर्तमान् कांजीवरम् थी। विद्या और कलाओंके लिए यह स्थान बहुत ही प्रसिद्ध था। दूरदूरके विद्वान् और कवि यहाँके दरबार में आते थे। धार्मिक वादविवाद भी वहाँ होते थे। पल्लव राजा जैनी या जैनधर्मके आश्रयदाता थे. इसके भी प्रमाण मिलते हैं। उनकी दरबारी भाषा भी शायद प्राकृत थी। 'मायिडावोली' नामका सुप्रसिद्ध ग्रन्थ उसी समयका बना हुआ है और प्राकृतमें है। आचार्य कुन्दकुन्द द्रविडदेशके थे। इसके अनेक प्रमाण हैं, अतएव उनका शिष्य शिवकुमार यही शिवस्कन्दवमा होगा और उसका अवस्थितिकाल विक्रमकी प्रथम शताब्दि है।।
श्रीश्रुतसागरसूरि । षट्प्राभृत या षट्पाहुड़के टीकाकार आचार्य श्रुतसागर बहुश्रुत विद्वान् थे। इस टीकासे और यशस्तिलक-चन्द्रिकाटीकासे मालूम होता है कि वे कलिकालसर्वज्ञ, कलिकाल गौतमस्वामी, उभयभाषाकविचक्रवर्ती आदि महती पदवियोंसे अलंकृत थे ! उन्होंने 'नवनवति' (९९) महावादियोंको पराजित किया था !
वे मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगणके आचार्य और विद्यानन्दि भट्टारकके शिष्य थे। उनकी गुरुपरम्परा इस प्रकार थी-पद्मनन्दि--देवेन्द्रकीर्ति-विद्यानन्दि ।
परन्तु विद्यानन्दि भट्टारकके पट्टपर जान पड़ता है उनकी स्थापना नहीं हुई थी। क्यों कि विद्यानन्दिके बादकी गुरुपरम्परा इस प्रकार मिलती है--विद्यानन्दि-मल्लिभूषण-लक्ष्मीचन्द्र ।
स्वर्गीय दानवीर सेठ माणिकचन्दजीके ग्रन्थभण्डार में पं. आशाधरके महाभिषेक नामक ग्रन्थकी टीका है। उसके अन्त में इस प्रकार लिखा है:
" श्रीविद्यानंदिगुरोर्बुद्धिगुरोः पादपंकजभ्रमरः । श्रीश्रुतसागर इति देशव्रती तिलकष्टीकते स्मेदं ॥ इति ब्रह्मश्रीश्रुतसागरकृता महाभिषेकटीका समाप्ता ॥ श्रीरस्तु लेखकपाठकयोः ॥ शुभं भवतु ॥ श्री ॥
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