Book Title: Shatkhandagam aur Kasaypahud
Author(s): Chetanprakash Patni
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 6
________________ षट्खण्डागम और कसायपाहुड ... दण्डक, उत्कृष्ट स्थिति, जघन्य स्थिति सम्यक्त्वोत्पत्ति तथा गति-आगनि नामक नौ चूलिकाएँ हैं। इनमें से प्रथम दो चूलिकाओं में कर्मों के भेदों और उनके स्थानों की प्ररूपणा है। सम्यग्दर्शन के सम्गख जीव किन-किन प्रकृतियों को बांधता है इसके स्पष्टीकरणार्थ ३ टण्डक स्वरूप ३ चूलिकाएँ हैं। कर्मों की जघन्य तथा उत्कृष्ट स्थिति को छठी व सातवीं चूलिकाएँ बताती हैं। इस प्रकार इन सात चलिकाओं में कर्म का विस्तार से वर्णन किया गया है। अन्तिम दो चूलिकाओं में सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति तथा जीवों की गति--आगति बताई गई है। इस प्रकार छठी पुस्तक में मुख्यत: कर्मप्रकृतियों का वर्णन है। सातवीं पुस्तक में षट्खण्डागम के दूसरे खण्ड क्षुद्रकबन्ध की टीका है जिसमें संक्षेप में कर्मबन्ध का प्रतिपादन किया गया है। आठवीं पुस्तक में षट्खण्डागम के तीसरे खण्ड बन्धस्वामित्व विषय की टीका पूर्ण हुई है। कौनसा कर्मबन्ध किस गुणस्थान तथा मार्गणा से सम्भव है, यह इसमें वर्णित है। इसी सन्दर्भ में निरन्तरबन्धी, सान्तरबन्धी, ध्रुवबन्धी आदि प्रकृतियों का खुलासा तथा बन्ध के प्रत्ययों का खुलासा है।। नवम भाग में वेदना खण्ड संबंधी कृति अनुयोगद्वार को टीका है। वहां आद्य ४४ सूत्रों की टीका में विभिन्न ज्ञानों की विशद प्ररूपणा की है। फिर सूत्र ४५ से अन्त तक कृति अनुयोगद्वार का विभिन्न अधिकारों में प्ररूपण किया गया है। दसवीं पुस्तक में पखण्डागम के वेदना खण्ड विषयक वेदनानिक्षेप, नयविभाषणता, नामविधान तथा वेदनाद्रव्यविधान अनुयोगद्वारों का सविस्तार विवेचन है। ग्यारहवीं पुस्तक में वेदना क्षेत्रविधान तथा वेदना कालविधान का विभिन्न अनुयोगद्वारों-अधिकारों द्वारा वर्णन करके फिर दो चूलिकाओं द्वारा अकथित अर्थ का प्ररूपण तथा प्ररूपित अर्थ का विशिष्ट खुलासा किया है। बारहवीं पुस्तक में वेदना भावविधा आदि १० अनुयोगद्वारों द्वारा गुणश्रेणिनिर्जरा तथा अनुभाग से संबंधित सूक्ष्मतम, विस्तृत तथा अन्यत्र अलभ्य ऐसी प्ररूपणा की गई है। इस तरह वेदना अनुयोगद्वार के १६ अधिकार तीन पुस्तकों १०–११–१२ में सटीक पूर्ण होते हैं। षट्खण्डागम के पाँचवें खण्ड की टीका (वर्गणा खण्ड) तेरहवीं, चौदहवीं पुस्तक में हुई है। तेरहवीं पुस्तक में स्पर्श, कर्म व प्रकृति अनुयोगद्वार है। स्पर्श अनुयोगद्वार का १६ अवान्तर अधिकारों द्वारा विवेचन करके फिर कर्म अनुयोगद्वार का अकल्प्य १६ अनुयोगद्वारों द्वारा वर्णन करके तत्पश्चात् अन्तिम प्रकृति अनुयोगद्वार में ८ कर्मों का सांगोपांग वर्णन है। चौदहवीं पुस्तक में बन्धन अनुयोगद्वार द्वारा बन्ध, बन्धक, बन्धनीय (जिसमें २३ वर्गणाओं का विवेचन है, पाँच शरीर की प्ररूपणा भी है तथा बन्ध विधान का मात्र नाम निर्देश है।) द्वारा प्ररूपणा की है। अन्तिम दो पुस्तकोंपन्द्रहवीं, सोलहवीं द्वारा शब्दब्रह्म, लोकविज्ञ, मनिवृन्दारक, भगवद् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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