Book Title: Shatkhandagam aur Kasaypahud
Author(s): Chetanprakash Patni
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 5
________________ 492 जिनवाणी- जैनागम साहित्य विशेषायक मोहनीय का जितना सूक्ष्मतम अचिन्त्य व मौलिक वर्णन इसमें है वैसा अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता। षट्खण्डागम नामक मूलग्रन्थ का छठा खण्ड महाबंध है। इसे ही महाधवल कहते हैं। यह मूल खण्ड ही ३० हजार श्लोक प्रमाण है अत: इस पर किसी भी आचार्य को टीका लिखने की आवश्यकता अनुभूत नहीं हुई। किसी ने लिखी तो भी वह मूल से भी छोटी ही रही। बप्पदेव ने ८००५ श्लोकों में महाबंध की टीका रची। यही षट्खण्डागम का अंतिम खण्ड महाबन्ध या महाधवल अनुवाद सहित सात भागों में भारतीय ज्ञानपीठ से छप चुका है। पिछले दिनों इन सात भागों का पुनर्मुद्रण हुआ है। महाधवल टीका में सभी कर्म-प्रकृतियों के बन्ध का सविस्तार सांगोपांग वर्णन है। प्रथम पुस्तक में प्रकृतिबन्ध का वर्णन है। दूसरी और तीसरी पुस्तक में स्थिति बंध वर्णित है। चतुर्थ व पंचम पुस्तक में अनुभाग बन्ध तथा छठी-सातवीं पुस्तक में प्रदेश बंध का वर्णन है। षट्खण्डागम की प्रसिद्ध टीका 'धवला' संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में भगवद् वीरसेन स्वामी द्वारा ७२००० श्लोक प्रमाण लिखी गई हैं। वर्तमान में इसका अनुवाद हिन्दी में ७००० पृष्ठों में १६ भागों / पुस्तकों में हुआ है। प्रथम छह भागों में षट्खण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड की टीका है। प्रथम पुस्तक में गुणस्थानों तथा मार्गणास्थानों का विवरण है। गुणस्थान तथा मार्गणास्थान सम्पूर्ण धवल, जयधवल और महाधवल का हार्द • है। दूसरी पुस्तक में गुणस्थान, जीव-समास, पर्याप्ति आदि २० प्ररूपणाओं द्वारा जीव की परीक्षा की गई है। तीसरी पुस्तक द्रव्यप्रमाणानुगम है जिसमें यह बताया गया है कि ब्रह्माण्ड में सकल जीव कितने हैं। इसमें भिन्न-भिन्न अवस्थाओं, गतियों आदि में भी जीवों की संख्याएँ गणित शैली से सविस्तार तथा सप्रमाण बताई गई हैं। चौथी पुस्तक में क्षेत्र स्पर्शन कालानुगम द्वारा बताया गया है कि सकल ब्रह्माण्ड में जीव निवास करते हुए, विहार आदि करते हुए कितना क्षेत्र वर्तमान में तथा अतीत में छूते हैं या छू पाए हैं। स्थानों तथा मार्गणाओं में से प्रत्येक अवस्था वाले जीवों का आश्रय कर यह प्ररूपण किया गया है। कालानुगम में मिथ्यादृष्टि आदि जीवों की कालावधि विस्तार से प्ररूपित की गई है। पाँचवी पुस्तक अन्तरभाव अल्पबहुत्वानुगम में बताया है कि- १. विवक्षित गुणस्थान छोड़कर अन्यत्र जाकर पुन: उसी गुणस्थान में जीव कितने समय बाद आ सकता है । २. कर्मों के उपशम, क्षय व क्षयोपशम से होने वाले जो परिणाम हैं, उन्हें भाव कहते हैं। वे भाव मिथ्यादृष्टि आदि में तथा नरकगति आदि में कैसे होते हैं तथा ३ विभिन्न गुणस्थानादिक में जीवों की हीनाधिक संख्या कैसी है? छठी पुस्तक चूलिका स्वरूप है। इसमें प्रकृति समुत्कीर्तन, स्थान समुत्कीर्तन, तीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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