Book Title: Shatkhandagam aur Kasaypahud
Author(s): Chetanprakash Patni
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 4
________________ षट्खण्डागम और कसायपाहुड 4011 491 षट्खण्डागम पर सबसे पहले विशाल दीका आचार्य वीरसेन स्वामी की है। इनके शिष्य आचार्य जिनसेन ने अपने गुरु को 'भट्टारक', 'वादिवृन्दारक मुनि' और 'सिद्धान्तोपनिबन्धकर्ता' कहा है तथा उनकी धवला टोका को 'भुवनव्यापिनी' संज्ञा प्रदान की है। वीरसेनाचार्य ने चित्रकूट पर (चित्तौड़गढ़) में अपने गुरु श्री एलाचार्य के पास रहकर समस्त सिद्धान्त का अध्ययन किया और वहीं टीका का लेखन प्रारभ किया। बाद में वाटप्राम पधारे। वहां उन्हें बापदेव की टीका देखने को मिली, जिसके आधार पर वहीं उन्होंने पाँच खण्डों पर ७२ हजार श्लोक प्रमाण प्राकृत और संस्कृत मिश्रित 'धवला' टीका लिखी। षटखण्डागम का छठा खण्ड महाबन्ध स्वयं आचार्य भूतबली द्वारा विस्तार पूर्वक लिखा गया था। इसकी प्रसिद्धि 'महाधवल' नाम से हुई। धवला टीका की समाप्ति कार्तिक शुक्ला १३ शक संवत् ७३८ तदनुसार दिनांक ८ अक्टूबर सन् ८१६ बुधवार को प्रात: काल हुई। सम्भवत: शुक्ल पक्ष में पूर्ण होने के कारण इस टीका का नाम धवला टीका रखा गया। विशद और स्पष्ट अर्थ में धवल शब्द का प्रयोग होने से भी यह धवला कहलाई। अमोघवर्ष के राज्यकाल में यह टीका रची गई। उसकी एक उपाधि 'अतिशय धवल' भी मिलती है। सम्भव है इसी उपाधि के कारण इस टीका का नाम धवला टीका रखा गया हो। कषायप्राभृत आचार्य धरसेन के समकालीन आचार्य गुणधर हुए। उन्होंने कषायप्राभृत- कसायपाहुड की रचना की। यतिवृषभ आचार्य ने उस पर चूर्णिसूत्र लिखे। धवला टीका पूर्ण करने के बाद आचार्य वीरसेन ने कषायप्राभृत की टीका लिखना प्रारम्भ किया। २० हजार श्लोक प्रमाण लिखने के बाद उनका निधन हो गया। तब उनके शिष्य आचार्य जिनसेन ने चालीस हजार श्लोक प्रमाण और लिख कर उस टीका को पूर्ण किया। कषायप्राभृत सचूर्णिसूत्र को टीका का नाम जयधवला है। साठ हजार श्लोक प्रमाण यह जयधवला टीका उपर्युक्त दोनों आचार्यों द्वारा कुल मिलाकर २१ वर्षों के दीर्घकाल में लिखी गई। जयधवला शक संवत् ७५९ में पूर्ण हुई। प्रकाशन घटखण्डागम के मुद्रण का भी लम्बा इतिहास है। वर्तमान में उपलब्ध 'धवला' के १६ भाग १९३६ ई. से १९५६ ई. तक २० वर्षों की अवधि में छपे है। अब तो इनके संशोधित नवीन संस्करण भी प्रकाशित हो चुके हैं। कषायप्राभृत के १६ खण्ड श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ, मथुरा ने प्रकाशित किये हैं। १६ भागों में कुल ६४१५ पृष्ठों में जयधवला टीका सानुबाट प्रकाशित हुई है। इसमें मात्र मोह का वर्णन है जिसमें दर्शनमोह और चारित्रमोह दोनों गर्भित हैं। शेष सात कर्मों की प्ररूपणा इसमें नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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