Book Title: Shastra Sandesh Mala Part 09
Author(s): Vinayrakshitvijay
Publisher: Shastra Sandesh Mala
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________________ // 48 // // 49 // // 50 // // 51 // // 52 // // 53 // न हि सोऽस्तीन्द्रियविषयो, येनाभ्यस्तेन नित्यतृषितानि / तृप्ति प्राप्नुयुरक्षाण्यनेकमार्गप्रलीनानि कश्चिच्छुभोऽपि विषयः, परिणामवशात्पुनर्भवत्यशुभः / कश्चिदशुभोऽपि भूत्वा, कालेन पुनः शुभीभवति कारणवशेन यद्यत्, प्रयोजनं जायते यथा यत्र / तेन तथा तं विषयं, शुभमशुभं वा प्रकल्पयति अन्येषां यो विषयः, स्वाभिप्रायेण भवति तुष्टिकरः / स्वमतिविकल्पाभिरतास्तमेव भूयो द्विषन्त्यन्ये तानेवार्थान्द्विषतस्तानेवार्थान्प्रलीयमानस्य / निश्चयतोऽस्यानिष्टं, न विद्यते किंचिदिष्टं वा रागद्वेषोपहतस्य केवलं कर्मबन्ध एवास्य / . नान्यः स्वल्पोपि गुणोऽस्ति यः परत्रेह च श्रेयान् यस्मिन्निन्द्रियविषये, शुभमशुभं वा निवेशयति भावम् / रक्तो वा द्विष्टो वा, स. बन्धहेतुर्भवति तस्य स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य, रेणुना श्लिष्यते यथा गात्रम् / रागद्वेषाक्लिन्नस्य कर्मबन्धो भवत्येवम् एवं रागद्वेषौ, मोहो मिथ्यात्वमविरतिश्चैव / एभिः प्रमादयोगा-नुगैः समादीयते कर्म कर्ममयः संसारः, संसारनिमित्तकं पुनर्दुःखम् / तस्माद्रागद्वेषा-दयस्तु भवसन्ततेर्मूलम् / एतद्दोषमहास-ञ्चयजालं शक्यमप्रमत्तेन / प्रशमस्थितेन घन-मप्युद्वेष्टयितुं निरवशेषम् अस्य तु मूलनिबन्धं, ज्ञात्वा तच्छेदनोद्यमपरस्य / दर्शनचारित्रतपः-स्वाध्यायध्यानयुक्तस्य // 54 // // 56 // // 57 // // 58 // // 59 //
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