Book Title: Shakahari Aharo se Urja
Author(s): Madhu A Jain
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf

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Page 2
________________ २८० पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड २. विभिन्न आहार तंत्रों का तुलनात्मक मूल्यांकन यह देखा गया है कि गुणात्मक रूप से तथा परिमाणात्मक रूप से शरीर-तंत्र के लिये उपरोक्त कार्य किसी भी एक आहार पदार्थ से संपन्न नहीं हो सकते। इसलिये हमें अनेक खाद्य पदार्थों की आवश्यकता होती है जो हमें समुचित पोषक तत्व एवं ऊर्जा प्रदान कर सकें। इसलिये आहार-शास्त्रियों ने संतुलित आहार के लिये सात मूल खाद्य पदार्थ ज्ञात किये हैं : कार्बोहाइड्रेट ( अन्न ), वसाय, दुग्ध-दुग्ध उत्पाद, प्रोटीन (दाल), कन्दमूल, पत्तेदार शाकें एवं फल ( खनिज एवं विटामिन)। इसमें से अन्तिम तीन शरीर तंत्र की क्रियाविधि के नियमन एवं संरक्षण का काम करते हैं। ये ऊर्जा की नगण्य पूर्ति ही करते हैं। लेकिन किसी मो संतुलित या आदर्श आहार के लिये ये अनिवार्य घटक हैं। इन खाद्यों की आपूर्ति प्राकृतिक, परिष्कृत या नव-विकसित आहारों पर निर्भर करती है । ये शाकाहारी और अ-शाकाहारीदोनों स्रोतों से प्राप्त हो सकते हैं। यह विश्व के विभिन्न भागों में विद्यमान भौगोलिक एवं कृषि-सुविधा की परिस्थितियों पर निर्मित आहार-रुचियों पर निर्भर करता है। पश्चिम ने अपने आहार-पदार्थों को पूर्ति के लिये मिश्र-स्रोत अपनाये हैं। पर मारत प्रमुखतः शाकाहारी है। फिर भी, इसके ७१% निवासियों को हम आदर्श शाकाहारी नहीं कह सकते क्योंकि वे वर्ष में अनेक बार अंडे एवं मांसाहार का उपयोग करते हैं। पश्चिम को शाकाहार के विरुद्ध अनेक शिकायतें हैं। जिनका समर्थन अनेक भारतीय विद्वानों ने भी किया है ( उन्होंने समुचित शोध एवं वैज्ञानिक विचारणा की होगी, इसमें सन्देह है ) इससे नयी पीढ़ी में अ-शाकाहार की प्रवृत्ति बढ़ी है। इसी कारण शाकाहार को सही परिभाषा का भी प्रश्न उपस्थित हुआ। भारतीय परम्परा में 'वैगन' समिति की अतिवादी मान्यता अव्यावहारिक मानी जाती है, इसमें दुग्ध-अंड-शाकाहार तथा दुग्ध-अंड-विहीन शाकाहार के बदले दुग्ध पूर्ण शाकाहार को मान्यता दी जाती है। इसके अनुसार, शाकाहार में ऐसे खाद्य पदार्थ आते हैं जिनके प्राप्त करने में या तैयार करने में किसी भी स्तर पर किसी के जीवन को कोई कष्ट न हो या किसी का जीवन समाप्त न हो। इस परिभाषा में दूध और उसके उत्पाद समाहित हो जाते हैं, पर अंडे आदि नहीं। बीसवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में, पश्चिम ने गैर-शाकाहारी आहार तन्त्र को उत्तम माना। लेकिन अब यह दग्ध-शाकाहारबाद को वैज्ञानिक आधार पर स्वीकृत कर रहा है। ब्रिटेन, अमेरिका. कनाडा तथा अन्य एशियाई देशों में अब शाकाहार के सुरक्षित लामों के प्रति लोग आश्वस्त हो रहे हैं। वे इस ओर न केवल आर्थिक या धार्मिक दृष्टि से ही आकृष्ट हो रहे हैं, अपितु वे इसे स्वास्थ्य, पर्यावरण, अहिंसा एवं सुरुचि का भी प्रतीक मानते हैं। ट्रेपिस्ट मोंक्स, सेवेन्थ डे एडवेन्टिस्ट क्रिश्चियन्स, जेन माइक्रोवायोटिक्स, अनेक देशों के केरिस्ट और जी० बी० शा के समान अनेक व्यक्तियों और समूहों ने इस भारतीय परम्परा को स्वीकार किया है। अब यह भली मांति स्वीकार किया जाता है कि शाकाहार आर्थिक, ऊर्जात्मक एवं खाद्यघटकों को दृष्टि से सारणी १ को सूचनानुसार उत्तम होता है। यह सही है कि वैज्ञानिक आहार शास्त्र के विकास के प्रारम्भिक दिनों में शाकाहार में B, एवं दो आवश्यक ऐमिनो-अम्लों की अपूर्णता का बोध हुआ था, पर इन्हें आहारों में सोया दूध, मूंगफली-चूर्ण, दूध उत्पाद तथा पत्तेदार शाकों के अनिवार्य समाहरण द्वारा पूरी तरह से दूर किया जा चुका है। अनेक अन्य तथाकथित शाकाहार की कमियां उसके लाभों को ही प्रकट करती हैं (सारणी)। वस्तुतः इन लाभों के कारण ही पश्चिम अब शाकाहार की ओर अधिकाधिक आकृष्ट हो रहा है । यही स्थिति भारत के युवा वर्ग की भी सम्भावित है। ३. शरीर की ऊर्जकीय एवं पोषक तत्वों की आवश्यकतायें ___सांख्यिकीय आधार पर औसत भारतीय के लिये, एफ० ए० ओ० तथा डल्लू० एच० ओ० के १९६४ के विवरण के विपर्यास में, दैनिक रूप से २२४० के०७ ऊर्जा की आवश्यकता है। अनेक प्रकार की समर्थक विवेचना देते हुए डा० दांडेकर, रथ, आचार्य और सुखात्मे ने भी इस मत का समर्थन किया है। यह ५५ किग्रा० औसत भार वाले भारतीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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