Book Title: Shabdavali aur Uska Arth Abhipraya Abhava Praman Ek Chintan
Author(s): Rameshmuni
Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf

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Page 1
________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ अभाव प्रमाण-एक चिन्तन -श्री रमेश मुनि शास्त्री (उपाध्याय श्रीपुष्करमुनिजी के सुशिष्य) यथार्थ ज्ञान प्रमाण है। ज्ञान और प्रमाण इन दोनों का व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है। ज्ञान व्यापक है और प्रमाण व्याप्य है। ज्ञान के दो प्रकार हैं-यथार्थ और अयथार्थ । जो ज्ञान सही निर्णायक है, वह यथार्थ है, जिसमें संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय होता है, वह यथार्थ नहीं है । संशय आदि दाषों से रहित यथार्थ ज्ञान ही प्रमाण है । प्रमाण द्वारा प्रमेय की सिद्धि होती है। प्रमाण के द्वारा प्रमेयात्मक पदार्थ-स्वरूप को जानने के पश्चात् ही मानव अपने अभीष्ट विषय की प्राप्ति और अनिष्ट विषय के परिहार के लिये तत्पर होता है। जिसका निश्चय किया जाय, उसे प्रमेय कहते हैं और जिस ज्ञान के द्वारा समग्र-पदार्थ का सुनिश्चय किया जाय, उस सर्वांशग्राही बोध को प्रमाण कहते हैं । प्रमेयात्मक पदार्थ का नय और प्रमाण से सु-निश्चय किया जाता है । ज्ञाता का वह अभिप्राय-विशेष नय कहलाता है। अनेक दृष्टिकोण से परिष्कृत वस्तु तत्त्व के एकांशग्राही ज्ञान को नय कहते हैं । नय प्रमाण से सर्वथा भिन्न भी नहीं है और अभिन्न भी नहीं है । प्रमाण सर्वाशनाही है और नय अंशग्राही है । प्रमाण यदि सिन्धु है तो नय बिन्दु है। प्रमाण यदि सूर्य है तो नय रश्मिजाल है । प्रमाण सर्वनय रूप है। प्रमाण के दो भेद हैं । प्रथम प्रकार, “प्रत्यक्ष" है और द्वितीय प्रकार है-परोक्ष । प्रत्यक्ष प्रमाण की दो प्रधान शाखाएँ हैं-आत्म-प्रत्यक्ष और इन्द्रिय-अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष । प्रथम शाखा परमार्थाश्रयी है एतदर्थ यह वास्तविक प्रत्यक्ष है। और दूसरी शाखा व्यवहाराश्रयी है एतदर्थ यह औपचारिक प्रत्यक्ष है । पारमार्थिक प्रत्यक्ष की उत्पत्ति में केवल आत्मा की सहायता रहती है। प्रत्येक द्रव्य का अपना असाधारण स्वरूप होता है। उसके अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव होते हैं जिनमें उसको सत्ता सीमित रहती है। सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव भी अन्ततः द्रव्य की असाधारण स्थितिरूप ही फलित होते हैं। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूप-चतुष्टय से सत् होता है और पर-रूप-चतुष्टय से असत् है । प्रत्येक पदार्थ स्व-रूप से स पर-रूप से असत् होने के कारण भाव और अभाव रूप है । पदार्थ सद्-असदात्मक है। उसमें सद् अंश को भाव और असद् अंश को अभाव या प्रतिषेध कहा गया है । वह अभाव चार प्रकार का कहा गया है।' उनके नाम इस प्रकार हैं अभाव प्रमाण-एक चिन्तन : रमेश मुनि शास्त्री | १७१ . ..... .

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