Book Title: Shabdavali aur Uska Arth Abhipraya Abhava Praman Ek Chintan
Author(s): Rameshmuni
Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ FREEEEEiiiiiiiiiiii::::: HHHHHHHHHETRA आग्रही व्यक्ति की युक्ति वहीं जाती है जहाँ उसकी बुद्धि पहुँचती है जब कि निष्पक्ष व्यक्ति की बुद्धि उसकी युक्ति का अनुसरण करती है। आगे चलकर याकोबी के मन में जैन धर्म सम्बन्धी अधिक जिज्ञासा जागृत हुई । उन्होंने पुनः भारत की यात्रा की योजना बनाई । अब की बार हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज में गुजरात और काठियावाड का दौरा किया। स्वदेश लौटकर उन्होंने अपभ्रश के भविसत्त कहा और सणक्कूमार चरिउ नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का सम्पादन कर प्रकाशित किया। उनके शोधपूर्ण कार्यों के लिये कलकत्ता विश्वविद्यालय की ओर से उन्हें डॉक्टर ऑव लैटर्स, तथा जैन समाज की ओर से जैन दर्शन दिवाकर की पदवी से सम्मानित किया गया। आज से एक शताब्दी पूर्व जैन विद्या के क्षेत्र में किया हुआ प्रोफेसर हर्मान याकोबी का अनुसन्धान उतना ही उपयोगी है जितना पहले था। कील विश्वविद्यालय के प्राच्य विद्या विभाग में जैन विद्या के क्षेत्र में कार्य करने वाले दूसरे धुरंधर विद्वान हैं रिशार्ड पिशल । देखा जाय तो भारतीय आर्य भाषा (इण्डो यूरोपियन) के अध्ययन के साथ प्राकृत भाषाओं का ज्ञान आवश्यक हो गया था । पिशल का कहना था कि संस्कृत के अध्ययन के लिये भाषा शास्त्र का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है और युरोप के अधिकांश विद्वान् इसके ज्ञान से वंचित हैं। कहना न होगा कि प्राकृत-अध्ययन के पुरस्कर्ताओं में पिशल का नाम सर्वोपरि है । पिशल द्वारा किये हुए श्रम का अनुमान इसी पर से लगाया जा सकता है कि उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में जब कि आगम-साहित्य प्रकाशित नहीं हुआ था, अप्रकाशित साहित्य की सैकड़ों हस्तलिखित प्रतियों को पढ़पढकर, उनके आधार से प्राकृत व्याकरण के नियमों को सुनिश्चित रूप प्रदान करना, कितना कठिन रहा होगा। + Frtiiiiiiiiiiiiiii पिशल ‘ऐलीमेण्टरी ग्रामर आव संस्कृत' के सुप्रसिद्ध लेखक ए० एफ० स्टेन्त्सलर (१८०७-१८७७) के प्रमुख शिष्यों में थे। यूरोप में संस्कृत सीखने के लिये आज भी इस पुस्तक का उपयोग किया जाता है । पिशल ने प्राकृत ग्रंथों के आधार से अपने 'ग्रामाटिक डेर प्राकृत प्राखेन' (प्राकृत भाषा का व्याकरण) नामक अमर ग्रन्थ में अत्यन्त परिश्रमपूर्वक प्राकृत भाषाओं का विश्लेषण कर उनके नियमों का विवेचन किया है। मध्ययुगीन आर्य भाषाओं के अनुपम कोश आचार्य हेमचन्द्रकृत देशी नाममाला का भी गेओर्ग ब्युहलर (१८३७-१८६८) के साथ मिलकर उन्होंने विद्वत्तापूर्ण सम्पादन किया है। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिये कि कलकत्ता विश्वविद्यालय के आमत्रण पर जमनी से मद्रास पहुँचकर वे के लिये रवाना हो रहे थे कि उनके कान में ऐसा भयंकर दर्द उठा जिसने उनकी जान ही लेकर छोडी। अन्र्स्ट लायमान (१८५८-१९३१) जैन विद्या के एक और दिग्गज विद्वान् हो गये हैं। आलब्रेख्त वेबर के वे प्रतिभाशाली शिष्य थे। स्ट्रासबर्ग में प्राच्य विद्या विभाग में प्रोफेसर थे, वहीं रहते हुए उन्होंने हस्तलिखित जैन ग्रंथों की सहायता से जैन साहित्य का अध्ययन किया । जैन साहित्य उन दिनों प्रायः अज्ञात अवस्था में था। भारत एवं यूरोप में प्रकाशित हस्तलिखित ग्रन्थों की सूचियों के आधार से उन्होंने श्वेताम्बर और दिगम्बर ग्रंथों का परिचय प्राप्त किया । लायमान सूझ-बूझ के बहुत बड़े विद्वान थे जिन्होंने श्वेताम्बरीय आगमों का सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन किया था। जैन आगमों पर रचित निर्यक्ति एवं चुर्णी साहित्य को प्रकाश में लाने का श्रय उन्हीं को है, जो साहित्य विदेशी विद्वानों को अज्ञात था। अनुसन्धान की कार्य-प्रणाली विदेशी जैन विद्वानों के सन्दर्भ में : डॉ० जगदीशचन्द्र जैन | १७७ wwwsH

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11