Book Title: Shabdavali aur Uska Arth Abhipraya Abhava Praman Ek Chintan
Author(s): Rameshmuni
Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf
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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
सम्पादक थे जिसका प्रारम्भ सुप्रसिद्ध वी० ट्रैकनेर के सम्पादकत्व में हुआ था । वसुदेवहिंडि की भाषा को लेकर उन्होंने जो 'बुलेटिन ऑव द स्कूल ऑव ओरिण्टियल एण्ड अफ्रीकन स्टडीज्' नामक पत्रिका (१९३६) में 'द वसुदेव हिडि : ए स्पेसीमैन ऑव आर्किक जैन महाराष्ट्री' नामक शोधपूर्ण लेख प्रकाशित किया है, वह निश्चय ही उनकी गम्भीर विद्वत्ता की ओर लक्ष्य करता है । प्राकृत और पालि के साथ-साथ अपभ्रंश पर भी उनका अधिकार था । सोमप्रभ सूरि के कुमारपाल पडिबोह ग्रन्थ पर शोध प्रबन्ध लिखकर उन्होंने पी० एच डी० की उपाधि प्राप्त की (१९२८ में प्रकाशित) । प्रोफेसर याकोबी की प्रेरणा प्राप्त कर पुष्पदन्तकृत हरिवंस पुराण तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकार) पर शोधकार्य किया ( १९३६ में प्रकाशित ) । इसके सिवाय, कितने ही खोजपूर्ण उनके निबन्ध प्राच्य पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं । अगड़दत्त की कथा को लेकर 'न्यू इण्डियन ऐण्टीक्वेरी' (१९३८) में उनका एक खोजपूर्ण लेख प्रकाशित हुआ । आल्सडोर्फ के निबन्धों का संग्रह आलब्र ेख्त वेत्सलेर द्वारा सम्पादित 'लुडविग आल्सडोर्फ : क्लाइने श्रिफ्टेन' में देखा जा सकता है । यह ग्रन्थ ग्लासेनप्प फाउण्डेशन की ओर से १६७४ में प्रकाशित हुआ है ।
आल्सडोर्फ का एक दूसरा भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है जिसे भुलाया नहीं जा सकता । वह है प्राचीन महाराष्ट्री में रचित संघदास गणि वाचक कृत वसुदेवहिंडि की ओर विश्व के विद्वानों का ध्यान आकर्षित करना । १६३८ में, अब से ४८ वर्ष पूर्व, रोम की १६वीं ओरिण्टियल कांग्रेस में उन्होंने एक सारगर्भित निबन्ध पढ़ा जिसमें पहली बार बताया गया कि वसुदेवहिडि सुप्रसिद्ध गुणाढ्य की नष्ट बडकहा (बृहत्कथा) का नया रूपान्तर है । जैसा कहा जा चुका है, १९७०-१९७४ में इन पंक्तियों का लेखक कील विश्वविद्यालय इसी विषय पर शोधकार्य करने में संलग्न था । इसी को लेकर कई बार प्रोफेसर आल्सडोर्फ के साथ चर्चा करने का अवसर प्राप्त हुआ ।
इधर वसुदेवहिडि को लेकर भारत के बाहर विदेशों में शोधकार्य में वृद्धि हो रही है, लेकिन दुर्भाग्य से मूल प्रति के अभाव में जैसा चाहिए वैसा कार्य नहीं हो पा रहा है । वर्तमान वसुदेवहिडि की प्रति १६३० - १९३१ में मुनि चतुरविजय एवं मुनि पुण्य विजय द्वारा सम्पादित होकर भावनगर से प्रकाशित हुई थी । प्रोफेसर आल्सडोर्फ से इस सम्बन्ध में चर्चा होने पर उन्होंने कहा कि अन्य किसी शुद्ध पांडुलिपि के अभाव में, यही सम्भव है कि प्रकाशित ग्रन्थ की पाद टिप्पणियों में दिये हुए पाठान्तरों के आधार से इसका पुनः सम्पादन किया जाये । उनका यह मत मुझे ठीक जँचा, क्योंकि कितने ही स्थलों पर मैंने 'द वसुदेव हिंडि : ऐन ऑथेण्टिक जैन वर्जन ऑव द बृहत्कथा' (१९७७) नामक अपनी रचना में इन पाठान्तरों का उपयोग किया है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जर्मनी में जैन विद्या के अध्ययन को लेकर गुरु-शिष्य परम्परा में एक के बाद एक प्रकाण्ड विद्वान् पैदा होते गये जिन्होंने जैनधर्म, जैन दर्शन और प्राकृत के क्षेत्र में सराह - नीय कार्य किया । हेल्मुथ फॉन ग्लासेनप्प (१८६१ - १९६३) याकोबी के प्रमुख शिष्यों में से थे । लोकप्रिय शैली में उन्होंने जैनधर्म सम्बन्धी अनेक पुस्तकें लिखी हैं । जैनधर्म और कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी उनकी पुस्तकों के अनुवाद हिन्दी, गुजराती और अंग्रेजी में हुए हैं। उनकी एक पुस्तक का नाम है 'इण्डिया ऐज़ सीन बाई जर्मन थिंकर्स' (भारत जर्मन विचारकों की दृष्टि में ) है । उन्होंने अनेक बार भारत की यात्रा की । उनकी यात्रा के समय प्रस्तुत लेखक को उनसे भेंट करने का अवसर मिला था ।
विशेष उल्लेखनीय है कि आल्सडोर्फ सेवानिवृत्त होने पर भी उसी उत्साह और जोश से शोध कार्य करते रहे जैसे पहले करते थे और विश्वविद्यालय की ओर से उन्हें पहले जैसी सभी सुविधायें मिलती
१८० | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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