Book Title: Savruttik Aagam Sootraani 1 Part 22 Chandrapragyapti Mool evam Vrutti
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Vardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana

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Page 14
________________ आगम (१७) प्रत “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [-], -------------------- मूलं [२] + गाथा ||२|| पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: असुर-सुर-गरुड-भूयग वन्दितान्-अर्हति त्रिदृशकृतां समवसरणादि रूपां पूजामित्यर्हतस्तिर्थकृतस्तान् तथा सिद्धान् अपगत सकल कर्ममलात, आचार्यान् पञ्चविध ज्ञानादयाचार स्वयम् परिपालयन् परोपदेशदान सतत प्रवृतान् उपाध्याय यथाशक्ति दवादशांग स्वयम् अध्ययनपराध्यापन निजसुमानसान साधून ज्ञानादिक्रियाभि: मुक्तिसाधन प्रवणान् नत्वा नमस्कृत्या किमित्याह फुडवियड पायइत्थं वोच्छं पुव्वसुयसारणी-संद, सुहुमगणि नोवदिहं जोइसगणराय पन्नतिं ||३|| स्फुटयथावस्थितौ निर्मलबोधविषयो, विकटो-विस्तीर्ण:सूक्ष्मतर बुद्धिगम्य इत्यतः, प्रकट साक्षादषरेषूपरिस्फुरन्निवार्थो यस्यां सा तथा तां पूर्वश्रुतसार निस्पंदभूतानामेतेन पूर्वेभ्या इयं चन्द्रप्रज्ञप्तिउद्धृतेत्यावेदितं | इयं च न पूर्वाणि स्वयमधीत्पतत उद्धृता किं गुरूपदेशान्सारतस्तत आह सूक्ष्मगएकपदिष्ठां सूक्ष्म:, सूक्ष्ममिति परिकलितो गणि आचार्यो, गणोऽस्यास्ति इति व्यक्तेस्तेनोपदिष्टां यथा पूर्वाण गुरवेण व्याख्यातानि तथा तेभ्योधुतेति भाव: ज्योतिषि ग्रह नक्षत्र तारकाणि तेषां गण: समुहस्तस्यरांक्षाधिपतिध्योति: गणराजश्चेन्द्रस्तस्य प्रज्ञप्ति | प्रज्ञप्ते-प्ररूप्यते अनयेति प्रज्ञप्तिर्यथावस्थित तत् स्वरूप प्रतिपादिका वचनसंततिस्तां वक्ष्ये प्रतिपाद| यिष्यामि तत्र पूर्वेषु चन्द्रादि वक्तव्यता | । नामेण इन्दभूतीति गोतमो वंदिऊण तिविहेण, पुच्छड़ जिनवरवसहं जोइसगणराय पन्नतिं ||५|| प्रथमतो गौतमप्रश्नोपेक्षेवमावेदयति यो नाम्ना जगति इन्द्रभूतिरिति प्रसिद्धो, गौतमो गौतमगोत्र: स भगवंतं जिनवर वृषभं वर्द्धमान स्वामिनमस्य स्व समीपे तत्प्रश्नसंभवात् त्रिविधेन च मनसा वाचा कायेन च वंदित्वा-नमस्कृत्य, ज्योतिषराजस्य-चन्द्रमस उपलक्षणमेतत् सूर्यादेश्च प्रज्ञप्तेप्ररूप्यते इति प्रज्ञप्तिश्चन्द्रादीनां यथावस्थिता स्वरूपस्थितस्ताम् संपृच्छतीति | दीप अनुक्रम ~14~

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