Book Title: Savruttik Aagam Sootraani 1 Part 12 Gyatadharmkatha Mool evam Vrutti
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Vardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana

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Page 18
________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [-], ----------------- मूलं [२,३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: eroecemes ज्ञाताधर्म प्रत सूत्रांक [२,३] दीप अनुक्रम २,३] सत्यावपातं 'सत्यसेवं सेवायाः सफलीकरणात् 'सन्निहियपाडिहेरे' विहितदेवताप्रातिहार्य 'जागसहस्सभागपडिच्छए' उत्क्षिकथाङ्गम्यागाः-पूजाविशेषा ब्रामणप्रसिद्धास्तत्सहस्राणां भागम्-अंशं प्रतीच्छति आभाव्यखात् यत्तत्तथा 'बहुजणो अचेइ आगम्म पुण्णभई चेइ। से णं पुण्णभद्दे चेहए एकेणं महया वणसंडेण सबओ समंता संपरिखिते' सर्वतः-सर्वदिक्षु सम-18 पूणभद्रव॥४॥ तात-विदिक्ष च 'से णं वणसंडे किण्हे किण्होभासे कृष्णावभासः-कृष्णप्रभः कृष्ण एव वायभासत इति कृष्णावभासः,18 |र्णनं सू.२ नीले नीलोभासे प्रदेशान्तरे 'हरिए हरिओभासे प्रदेशान्तर एव, तत्र नीलो मयूरगलवत् हरितस्तु शुकपिच्छवत् , हरिता-1 कोणिकवलाभ इति वृद्धवाः, 'सीए सीओभासे' शीतः स्पर्शापेक्षया वयाद्याक्रान्तखादिति बृद्धाः, 'निद्धे निद्धोभासे स्निग्धो न तु र्णनं सू.३ रूक्षः, 'तिबे तिबोभासे' तीवो वर्णादिगुणप्रकर्षवान् , 'किण्हे किण्हच्छाए' इह कृष्णशब्द: कृष्णच्छाय इत्यस्य विशेषणमिति || न पुनरुक्तता, तथाहि-कृष्णः सन् कृष्णच्छायः, छाया चादित्यावरणजन्यो वस्तुविशेषः, एवं 'नीले नीलकछाए हरिए हरियच्छाए सीए सीयच्छाए निद्धे निच्छाए तिचे तिवच्छाए घणकडियकडिच्छाए' अन्योऽन्य शाखानुप्रवेशादहलनिरन्तरच्छायः 'रम्मे महामेह निकुरवभूए' महामेघवृन्दकल्पे इत्यर्थः, 'ते णं पायवा मूलमंतो कंदमंतो' कन्दो-मलानासुपरि 'खंधमंतो' स्कन्धः-स्थुडं 'तयामंतो' सालमंतो शाला-शाखा पवालमंतो' प्रवाल:-पल्लवाङ्करः, पित्तमंतो पुप्फमंतो फलमंतो वीयमंतो' 'अणुपुषसुजायरुइलवभावपरिणया' आनुपूपेण-मूलादिपरिपाट्या सुष्टु जाता रुचिराः वृत्त-18 भावं च परिणता येते तथा 'एक्कखंधा अणेगसाला अणेगसाहप्पसाहविडिमा' अनेकशाखाप्रशाखो विटपस्तन्मध्यभागो वृक्षविस्तारो येषां ते तथा 'अणेगणरवामसुप्पसारियअगेज्झधणविपुलवद्दखंधा' अनेकाभिर्नरवामाभिः सुप्रसारिताभिरग्राह्यो| ॥ ४ ॥ REaratiharana G unctionary.com पूर्णभद्र-चैत्यस्य वर्णनं ~18~

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