Book Title: Savruttik Aagam Sootraani 1 Part 07 Samvay Mool evam Vrutti
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Vardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana
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आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१]. ------------------------------------ मूल [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
A
१सम
प्रत
सुत्रांक
॥४॥
श्रीसमवा- रक्षति एवं भगवांश्चारित्रधर्मानानां संयमात्मप्रवचनाख्यानां रक्षणोपदेशाद्धर्मसारधिर्भवतीति तेन धर्मसारथिना, तथा
यांगे यः समुद्राश्चतुर्थों हिमवान् एते चत्वारः अन्ताः-पर्यन्तास्तेषु खामितया भवतीति चातुरन्तः स चासौ चक्रवर्ती च श्रीअभय चातुरन्तचक्रवर्ती वरचासौ पृथिव्याः चातुरन्तचक्रवर्ती चेति वरचातुरन्तचक्रवर्ती-राजातिशयः धर्मविषये वरचातुवृत्ति दन्तचक्रवर्ती धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती, यथा हि पृथिव्यां शेषराजातिशायी वरचातुरन्तचक्रवर्ती भवति तथा भग
वान् धर्मविषये शेषप्रणेतृणां मध्ये सातिशयत्वात् तथोच्यत इति तेन धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्तिना, एतच धर्मदाय|कत्वादिविशेषणपञ्चकं प्रकृष्टज्ञानादियोगे सति भवतीत्यत आह-अप्रतिहते-कटकुख्यपर्वतादिभिरस्खलिते अविसंवादके वा अत एव क्षायिकत्वाद्वा बरे-प्रधाने ज्ञानदर्शने केवललक्षणे धारयतीति अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरस्तेन, एवं-15 विधसंवेदनसंपदुपेतोऽपि छपवान् मिथ्योपदेशित्वानोपकारीति निश्छमताप्रतिपादनायास्याह, अथवा कथमस्याप्रतिहतसंवेदनत्वं सम्पन्न ?, अत्रोच्यते, आवरणाभावाद्, एतदेवाह-व्यावृत्तं-निवृत्तमपगतं छद्म-शठत्वमावरणं वा यस्य | |स तथा तेन व्यावृत्तछाना, मायावरणयोश्चाभावोऽस्य रागादिजयाजात इत्यत आह-जयति-निराकरोति रागद्वेषा-IRM |दिरूपानरातीनिति जिनतेन, रागादिजयश्चास्य रागादिखरूपतजयोपायज्ञानपूर्वक एव भवतीत्येतदस्याह-जा-INI नाति छानस्थिकज्ञानचतुष्टयेनेति ज्ञापकस्तेन, अनन्तरमस्य स्वार्थसम्पत्त्युपाय उक्तः, अधुना खार्थसम्पत्तिपूर्वकं परार्थ-11 सम्पादकत्वं विशेषणषट्केनाह-तीर्ण इव तीर्णः, संसारसागरमिति गम्यते, तेन, तथा तारयति परानप्युपदेशवर्तिन
NCASSACRACTEK
प्रत
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भगवन् महावीरस्य 'वीर शक्रस्तव' रूप विशेषणस्य व्याख्या:
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