Book Title: Satrahavi Shatabdi Ke Uttar Pradesh Ke Katipay Vishishta Jain Vyapari
Author(s): Umanath Shrivastav
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

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Page 4
________________ ११० जनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन दावत दी। इस प्रकार, शाह हीरानन्द मुकीम न केवल एक धनी व्यापारी और धार्मिक व्यक्ति थे, बल्कि सम्राट् जहाँगीर के कृपापात्र भी थे। इनके पुत्र शाह निहालचन्द्र भी संभवतः हीरे-जवाहरात का ही व्यापार करते थे । यह भी एक धार्मिक व्यक्ति थे। सन् १६११ ई० में जिनचन्द्रसूरि से एक पार्श्व प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई थी।' सन् १६१० ई० में आगरा के जैन संघ की ओर से तपागच्छाचार्य विजयसेनसूरि को जो विज्ञप्ति पत्र भेजा गया था, उसमें वहाँ के ८८ श्रावक तथा संघपतियों के हस्ताक्षर थे। उस सूची के संघपति नीहालु ही शाह हीरानंद मुकीम के पुत्र निहालचंद्र थे ।१२ २. सबलसिंह मोठिया ये नेमिदास (नेमा) साहू के पुत्र तथा जहाँगीर के शासनकाल में आगरा के एक अति वैभवशाली जैन व्यापारी थे। इन्होंने बनारसीदास को (सन् १६१५-१६ ई. में) आगरा के व्यापार में असफल हो जाने पर साझे में नरोत्तमदास जैन के साथ व्यापार करने के लिये पूर्व की ओर-पटना, बनारस, जौनपुर आदि नगरों की ओर भेजा था, क्योंकि वहाँ भी उस समय अच्छी व्यापारिक मण्डियाँ थीं। संभवतः सबलसिंह मोठिया ने इन व्यापारियों, बनारसीदास एवं नरोत्तमदास को आर्थिक सहायता प्रदान की होगी तथा यह भी आभास मिलता है कि सबलसिंह मोठिया की उक्त नगरों में भी व्यापारिक शाखायें रही होगी जहाँ बनारसीदास एवं नरोत्तमदास उनके प्रतिनिधि के रूप में गये होंगे । इन लोगों को वहाँ व्यापारिक सफलता मिली थी। यद्यपि नरोत्तमदास वापस आगरा आ गये थे, लेकिन बनारसीदास पिता की बीमारी के कारण आगरा वापस नहीं आ सके थे । नरोत्तमदास का लेखा (साझे का हिसाब) साफ हो गया था लेकिन बनारसीदास की अनुपस्थिति के कारण ऐसा नहीं हो सका । बनारसीदास को सबलसिंह ने इस संदर्भ में एक पत्र भेजा था कि आगरा आकर अपना हिसाब साफ कर लो, बाद में बनारसीदास के आगरा आने पर काफी १०. ज्योतिप्रसाद जैन, प्रमुख ऐतिहासिक जन पुरुष और महिलाएं (काशी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रका०, १९७५) पृ० २९० । ११. वही, पृ० २९०। १२. डॉ० हीरानन्द शास्त्री, प्राचीन विज्ञप्ति पत्र (बड़ौदा, राज्य प्रेस, १९४२) पृ० २५ । १३. बनारसीदास' बनारसी विलास, अर्धकथानक की समीक्षा सहित, नाथूराम प्रेमी (संपा०) (बम्बई, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय प्रका० १९०५) पृ० ७५ । परिसंवाद ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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