Book Title: Satrahavi Shatabdi Ke Uttar Pradesh Ke Katipay Vishishta Jain Vyapari
Author(s): Umanath Shrivastav
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

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Page 12
________________ ११८ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन अपने पिता संघवी खांभा के साथ मिलकर उक्त प्रतिमा की प्रतिष्ठा की थी। भट्टारक-सम्प्रदाय के इन्द्रभूषण मुनि ने उक्त मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी। १८. कुंवरपाल सोनपाल ये दोनों भाई प्रसिद्ध ओसवाल जैन व्यापारी तथा धार्मिक व्यक्ति थे। मुगल सम्राट जहाँगीर के शासन काल (१६१४ ई.) में इनके द्वारा किये गये धार्मिक कार्यों (मूर्तिप्रतिष्ठा, मन्दिर-निर्माण आदि) की सूचना आगरा, मिर्जापुर, लखनऊ तथा पटना के मूर्तिलेखों एवं मन्दिर-प्रशस्तियों से मिलती है। आगरा के पार्श्वनाथ चितामणि मन्दिर की प्रशस्ति में इनके परिवार तथा अन्य कार्यों के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है। इस प्रशस्ति का समय १६१४ ई. है। प्रशस्ति से पता चलता है कि १६१४ ई. में आगरा निवासी कुंवरपाल सोनपाल नामक भाइयों ने वहाँ तीर्थकर श्री श्रेयांसनाथ जी का मन्दिर बनवाया था, जिसकी प्रतिष्ठा अँचलगच्छ के आचार्य श्री कल्याणसागर ने कराई थी। इस अवसर पर मन्दिर-प्रतिष्ठा के साथ ही ४५० अन्य प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा हुई थी।६१ इनमें से कुछ प्रतिमाओं के लेख नाहर जी ने अपने लेख संग्रह में दिये हैं। प्रशस्ति से उनके परिवार के लोगों के बारे में प्रकाश पड़ता है। इनके पिता का नाम ऋषभदास था, जो दो भाई थे । भाई का नाम शाह वेमन था। ऋषभदास के कुँवरपाल और सोनपाल दो पुत्र थे। इन लोगों को रूपचन्द, चतुर्भुज, धनपाल और दुलीचन्द नामक चार पुत्र थे।६२ शाह वेमन के दो पुत्रों, षेतसी और नेतसी का नाम प्रशस्ति में है । ये ओसवाल जाति के लोढ़ा गोत्र के अन्तर्गत आते थे। इनकी माता का नाम रेखश्री था, चूंकि ऋषभदास का उपनाम रेषा था, अतः उनकी पत्नी रेखश्री कहलाई शाह वेमन की स्त्री का नाम शक्तादेवी था। कुंवरपाल सोनपाल जहाँगीर सम्राट् द्वारा सम्मानित थे। उसने इनको सीलदार ५९. डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर सम्पा० जैन शिलालेख संग्रह भाग चार (काशी, भारतीय ज्ञानपीठ, १९६१) पृ. ४०६ । ६०. पूरनचन्द नाहर, संक० जैनलेख संग्रह द्वितीय भाग (कलकत्ता, १९२७) लेखांक १४५६ ६१. बनारसीदास जैन, कुंवरपाल सोणपाल प्रशस्ति जैन साहित्य संशोधक (खण्ड २ अंक १) पृ. २६ । ६२. लखनऊ के लेख १५८२ में पुत्र दिया है लेकिन पटना के लेख ३०७ में भाई लिखा है । दोनों लेख एक ही समय सन् १६१४ ई० के हैं। नाहर का लेख संग्रह प्रथम व द्वितीय भाग देखें। परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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