Book Title: Satrahavi Shatabdi Ke Uttar Pradesh Ke Katipay Vishishta Jain Vyapari
Author(s): Umanath Shrivastav
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

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Page 2
________________ १०८ जैन विद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन आगरा आकर व्यापार करने लगे। आगरा की व्यापारिक एवं राजनीतिक महत्ता को देखते हुए अंग्रेजों ने अपनी व्यापारिक कम्पनी की एक शाखा जहाँगीर के शासन काल के प्रथम दशक में ही यहाँ स्थापित कर दी थी। जैन स्रोतों से यह भी पता चलता है कि अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ के शासन-काल तक आगरा की व्यापारिक प्रधानता बनी रही। अकबर तथा जहाँगीर के समकालीन जैन मुनि सिद्धिचंद ने लिखा है-"यह नगर यमुना नदी के किनारे बसा हुआ है। धनी व्यापारी और दुकानदार यहाँ निवास करते हैं । बाहर से भी व्यापारी यहाँ आते हैं तथा खरीद-विक्री करते हैं, हाथी, घोड़े, पक्षी, हीरे, जवाहरात, दास, कपड़े, मीठे फल, सब्जी आदि का उच्च स्तर पर यहाँ व्यापार होता है। सत्रहवीं शताब्दी के महान् जैन कवि बनारसीदास ने भी अपने आत्मचरित्र "अर्धकथानक' में आगरा की व्यापारिक एवं राजनीतिक प्रधानता का वर्णन किया है। सम्राट अकबर जैनों के 'अहिंसा' के सिद्धान्त से प्रभावित हुआ था । अतः उसने जैनों के कुछ महत्त्वपूर्ण पर्वो पर मुगल साम्राज्य में जीवहिंसा पर प्रतिबंध लगा दिया था। इस संदर्भ में उसने कई फर्मान जारी किये थे।४ सम्राट जहाँगीर ने सम्राट बनने पर इन राज्याज्ञाओं को पुनः जारी नहीं किया । अतः आगरा के प्रमुख जैनों ने १६१० ई० में प्रसिद्ध तपागच्छाचार्य श्रीविजयसेन सूरि को गुजरात में इस संदर्भ में प्रयास करने के लिए एक विज्ञप्ति पत्र भेजा।" श्री सूरि अस्वस्थता के कारण नहीं जा सके, लेकिन उन्होंने अपने दो प्रमुख शिष्यों, विवेकहर्ष और उदयहर्ष को जहाँगीर के दरबार में आगरा भेजा था। राजा रामदास के प्रयास से सम्राट जहाँगीर ने उपर्युक्त राजाज्ञाओं को पुनः जारी किया। इस विज्ञप्ति पत्र को कलात्मक रीति से तैयार किया गया था, जिसे दरबारी चित्रकार शालिवाहन ने चित्रित किया था । इसमें राजदरबार और जैनों के सामाजिक एवं धार्मिक जीवन का सुन्दर चित्रण किया गया था। ३. सिद्धिचन्द उपाध्याय, भानुचन्द्रगणिचरित्रम् मोहनदास दलीचन्द देसाई (संपा०) (कलकत्ता, ____ सिंघी जैन ग्रन्थमाला १९४१) उग्रसेनपुरवर्णनम् पृ० ३ । ४. महावीर प्रसाद द्विवेदी 'हीरविजयसूरि' सरस्वती (जून १९१२)। ५. विस्तार के लिए डॉ० हीरानन्द शास्त्री प्राचीन विज्ञप्ति पत्र (बड़ौदा राज्य प्रेस, १९४२) पृ० १९-४२। ६. एन० सी० मेहता, स्टडीज इन इंडियन पेन्टिग (बम्बई, १९२६) पृ० ६९ । परिसंवाद ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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