Book Title: Sarvagntva aur Uska Arth
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 4
________________ सर्वज्ञत्व और उसका अर्थ 3 अध्यात्मवेदी ने निश्चय व्यवहार का विश्लेषण किया तब यह समझना कठिन नहीं कि परम्परागत मान्यता को चालू रखने के उपरान्त भी उनके मन में एक नया अर्थ अवश्य सूझा जो उन्होंने अपने प्रिय नयवाद से विश्लेषण के द्वारा सूचित किया जिससे श्रद्धालु वर्ग की श्रद्धा भी बनी रहे और विशेष जिज्ञासु व्यक्ति के लिए एक नई बात भी सुझाई जाय । असल में कुन्दकुन्द का यह निश्चयवाद उपनिषदों, बौद्धपिटकों और प्राचीन बैन उल्लेखों में भी जुदे-जुदे रूप से निहित था, पर सचमुच कुन्दकुन्द ने उसे जैन परिभाषा में नए रूप से प्रगट किया । ऐसे ही दूसरे श्राचार्य हुए हैं याकिनीसूनु हरिभद्र । वे भी अनेक तर्कग्रन्थों में त्रैकालिक सर्वज्ञत्व का हेतुवाद से समर्थन कर चुके थे, पर जब उनको उस हेतुवाद में त्रुटि व विरोध दिखाई दिया तब उन्होंने सर्वज्ञत्व का सर्वसम्प्रदाय श्रविरुद्ध अर्थ किया व अपना योगसुलभ माध्यस्थ्य सूचित किया । मैंने प्रस्तुत लेख में कोई नई बात तो कही नहीं है, पर कहीं है तो वह इतनी ही है कि अगर सर्वज्ञत्व को तर्क से, दलील से या ऐतिहासिक क्रम से समझना या समझाना हो तो पुराने जैन ग्रन्थों के कुछ उल्लेखों के आधार पर व उपनिषदों तथा पिटकों के साथ तुलना करके मैंने जो अर्थ समझाया है वह शायद सत्य के निकट अधिक है। त्रैकालिक सर्वज्ञत्व को मानना हो तो श्रद्धापुष्टि व चरित्रशुद्धि के ध्येय से उसको मानने में कोई नुकसान नहीं । हाँ, इतना समझ रखना चाहिए कि वैसा सर्वशत्व हेतुवाद का विषय नहीं, वह तो धर्मास्तिकाय आदि की तरह श्रहेतुवाद का ही विषय हो सकता है। ऐसे सर्वज्ञत्व के समर्थन में हेतुवाद का प्रयोग किया जाय तो उससे उसे समर्थित होने के बजाय अनेक अनिवार्य विरोधों का ही सामना करना पड़ेगा । श्रद्धा का विषय मानने के दो कारण हैं । एक तो पुरातन श्रनुभवी योगिनों के कथन की वर्तमान अज्ञान स्थिति में श्रवहेलना न करना । और - दूसरा वर्तमान वैज्ञानिक खोज के विकास पर ध्यान देना । श्रभी तक के प्रायोगिक विज्ञान ने टेलीपथी, क्लेरबोयन्स और प्रीकोग्नीशन की स्थापना से इतना तो सिद्ध कर ही दिया है कि देश काल की मर्यादा का अतिक्रमण करके भी ज्ञान संभव है । यह संभव कोटि योग परंपरा के ऋतंभरा और बैन श्रादि परंपरा की सर्वज्ञ दशा की ओर संकेत करती है सर्वज्ञत्व का इतिहास I भारत में हर एक सम्प्रदाय किसी न किसी रूप से सर्वशत्व के ऊपर अधिक भार देता आ रहा है। हम ऋग्वेद आदि वेदों के पुराने भागों में देखते हैं कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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