Book Title: Sarvagntva aur Uska Arth
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 3
________________ ५५२ जैन धर्म और दर्शन मान्यता का विरोध करने की कठिनाई और दूसरी तरफ से सर्वज्ञत्व जैसे अतीन्द्रिय तत्व में अल्पज्ञत्व के कारण अन्तिम उत्तर देने की कठिनाई ये दोनों कठिनाइयाँ उनके सामने भी अवश्य थीं, फिर भी उनके तटस्थ तत्त्वचिन्तन और निर्भयत्व ने उन्हें चुप न रखा। ऐसे प्राचार्यों में प्रथम हैं कुन्दकुन्द और दूसरे हैं याकिनीसूनु हरिभद्र । कुन्दकुन्द आध्यात्मिक व गम्भीर विचारक रहे। उनके सामने सर्वज्ञत्व का परम्परागत अर्थ तो था ही, पर जान पड़ता है कि उन्हें मात्र परम्परावलम्बित भाव में सन्तोष न हुश्रा । अतएव प्रवचनसार आदि ग्रन्थों में जहाँ एक ओर उन्होंने परम्परागत त्रैकालिक सर्वस्व का लक्षण निरूपण किया वहाँ नियमसार में उन्होंने व्यवहार निश्चय का विश्लेषण करके सर्वज्ञत्व का और भी भाव सुझाया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि लोकालोक जैसी श्रात्मेतर वस्तुओं को जानने की बात कहना यह व्यवहारनय है और स्वात्मस्वरूप को जानना व उसमें निमग्न होना यह निश्चयनय है | यह ध्यान में रहे कि समयसार में उन्होंने खुद ही व्यवहारनय को असद्भत-अपारमार्थिक कहा है । कुन्दकुन्द के विश्लेषण का श्राशय यह जान पड़ता है कि उनकी दृष्टि में श्रात्मस्वरूप का ज्ञान ही मुख्य व अन्तिम ध्येय रहा है। इसलिए उन्होंने उसी को पारमार्थिक या निश्चयनयसम्मत कहा। एक ही उपयोग में एक ही समय जब आत्मा और आत्मेतर वस्तुओं का तुल्य प्रतिभास होता हो तब उसमें यह विभाग नहीं किया जा सकता कि लोकालोक का भास व्यवहारनय है और और श्रात्मतत्त्व का भास निश्चयनय है। दोनों भास या तो पारमार्थिक हैं या दोनों व्यावहारिक हैं--ऐसा ही कहना पड़ेगा फिर भी जत्र कुन्दकुन्द जैसे १. परिणमदो खलु गाणं पच्चक्खा सम्बदवपजाया । सो ऐव ते विजाणदि श्रोग्गह पुव्वाहि किरियाहिं । णस्थि परोक्खं किंचिवि समंत सव्वक्वगुणसमिद्धस्स । अक्खातीदस्स सदा सयमेव हि णाणजादस्स ॥ -प्रवचनसार १.२१-२. २. अप्पसरूवं पेच्छदि लोयालोयं ण केवली भगवं । जह कोइ भाइ एवं तस्स ३ किं दूसणं होई ॥ -नियमसार गा. १६६. ३. ववहारोऽभूयत्यो भूयत्यो देसिदो दु सुद्धणश्रो । भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइटी इवह जीवो ॥ --समयसार गा.११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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