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सर्वज्ञत्व और उसका अर्थ
हेतुवाद-अहेतुवाद . प्रस्तुत लेख का आशय समझने के लिए प्रारम्भ में थोड़ा प्रास्ताविक विचार दाना जरूरी है, जिससे पाठक वक्तव्य का भलीभाँति विश्लेषण कर सके । जीवन के श्रद्धा और बुद्धि ये दो मुख्य अंश हैं। वे परस्पर विभक्त नहीं हैं; फिर भी दोनों के प्रवृत्ति क्षेत्र या विषय थोड़े बहुत परिमाण में जुदे भी हैं। बुद्धि, तर्क, अनुमान या विज्ञान से जो वस्तु सिद्ध होती है उसमें श्रद्धा का प्रवेश सरल है, परन्तु श्रद्धा के समी विषयों में अनुमान या विज्ञान का प्रयोग संभव नहीं। अतीन्द्रिय अनेक तत्त्व ऐसे हैं जो जुदे-जुदे सम्प्रदाय में श्रद्धा के विषय बने देखे आते हैं, पर उन तत्वों का निर्विवाद समर्थन अनुमान या विज्ञान की सीमा से परे है । उदाहरणार्थ, जो श्रद्धालु ईश्वर को विश्व के कर्ता-धर्ता रूप से मानते हैं या जो श्रद्धालु किसी में त्रैकालिक सर्वज्ञत्व मानते हैं, वे चाहते तो हैं कि उनकी मान्यता अनुमान या विज्ञान से समर्थित हो, पर ऐसी मान्यता के समर्थन में जब तर्क या विज्ञान प्रयत्न करने लगता है तब कई बार बलवत्तर विरोधी अनुमान उस मान्यता को उलट भी देते हैं। ऐसी वस्तुस्थिति देखकर तत्त्वचिंतकों ने वस्तु के स्वरूपानुसार उसके समर्थन के लिए दो उपाय अलगअलंग बतलाए--एक उपाय है हेतुवाद, जिसका प्रयोगवर्तुल देश-काल की सीमा से परे नहीं। दूसरा उपाय है अहेतुवाद, जो देशकाल की सीमा से या इन्द्रिय और मन की पहुँच से पर ऐसे विषयों में उपयोगी है।
इस बात को जैन परम्पग की दृष्टि से प्राचीन बहुश्रुत श्राचार्यों ने स्पष्ट भी किया है । जब उनके सामने धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा भव्यत्व
१. दुविहो धम्मावासो अहेउवाश्री य हेउवायो य ।
तत्थ उ अहेउवानो भवियाऽभवियादश्रो भावा ।। भविश्रो सम्मइंसण-गाण-चरित्तपडिवत्तिसंपन्नों । णियमा दुक्खंतकडो त्ति लक्खणं हेउवायरस ॥ जो हेउवायपक्खम्मि हेउरो अागमे य आगमित्रो। सो ससमयपण्णवो सिद्धन्तविराहो अन्नो॥
-सन्मति प्रकरण ३.४३-५ तथा इन गाथाओं का गुजराती विवेचन ।
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सर्वशत्व और उसका अर्थ अभव्यत्व के विभाग जैसे साम्प्रदायिक मान्यता के प्रश्न तर्क के द्वारा समर्थन के लिए उपस्थित हुए तब उन्होंने कह दिया कि ऐसे अतीन्द्रिय विषय हेतुवाद से सिद्ध हो नहीं सकते। उनको अहेतुबाद से ही मानकर चलना होगा । अहेतुवाद का अर्थ है परम्परागत श्रागम पर या ऋषिप्रतिभा पर अथवा आध्यात्मिक प्रज्ञा पर विश्वास रखना।
यह नहीं कि मात्र जैन परम्परा ने ही ऐसे अहेतुवाद का श्राश्रय लिया हो। सभी धार्मिक परम्पराओं को अपनी किसी न किसी अतीन्द्रिय मान्यताओं के बारे में अपनी-अपनी दृष्टि से अहेतुवाद का आश्रय लेना पड़ा है। जब वेदान्त को अतीन्द्रिय परमब्रह्म की स्थापना में तर्क बाधक दिखाई दिए तब उसने श्रुति का अन्तिम श्राश्रय लेने की बात कही और तर्काप्रतिष्ठानात' कर दिया। इसी तरह जब नागार्जुन जैसे प्रबल तार्किक को स्वभावनैरात्म्यरूप शून्य तत्त्व के स्थापन में तकवाद अधूरा या बाधक दिखाई दिया तब उसने प्रज्ञा का आश्रय लिया । केण्ट जैसे तत्त्वज्ञ ने भी देश-काल से पर ऐसे तत्त्व को बुद्धि या विज्ञान की सीमा से पर बतलाकर मात्र श्रद्धा का विषय सूचित किया। स्पेन्सर की श्रालोचना करते हुए विल डुरां ने स्वष्ट कह दिया कि ईश्वरवादी विज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश करना छोड़ दें और वैज्ञानिक लोग ईश्वर तत्त्व या धर्म के विषय में प्रवेश करना छोड़ दें। यह एक प्रकार का हेतु-अहेतुवाद के वर्तुल का विभाजन ही तो है! ____ सर्वज्ञत्व जैन परम्परा की चिरश्रद्धेय और उपास्य वस्तु है । प्रश्न तो इतना ही है कि उसका अर्थ क्या ? और वह हेतुवाद का विषय है या अहेतुवाद का ? इसका उत्तर शताब्दियों से हेतुवाद के द्वारा दिया गया है। परन्तु बीच-बीच में कुछ प्राचार्य ऐसे भी हुए हैं जिनको इस विषय में हेतुवाद का उपयोग करना ठीक ऊँचा नहीं जान पड़ता । एक तरफ से सारे सम्प्रदाय में स्थिर ऐसी प्रचलित
सिद्ध चे तुतः सर्व न प्रत्यक्षादितो गतिः । सिंद्ध चेदागमात्सर्व विरुद्धार्थमतान्यपि ॥ विरोधानोभयकाम्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । श्रावाच्यतैकान्तेऽप्युक्ति वाच्यमिति . युज्यते । वक्तर्यनाते यद्धेतोः साध्यं तद्धेतुसाधितम् । आप्ते वक्तरि तदाक्यात् साध्यमागमसाधितम् ॥
-प्रासमीमांसा श्लो. ७६-८. १. तर्काप्रतिष्ठानादप्यन्यथानुमेयमिति चेदेवमप्यविमोक्षप्रसंग: ।
-ब्रह्मसूत्र २.१.११.
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जैन धर्म और दर्शन मान्यता का विरोध करने की कठिनाई और दूसरी तरफ से सर्वज्ञत्व जैसे अतीन्द्रिय तत्व में अल्पज्ञत्व के कारण अन्तिम उत्तर देने की कठिनाई ये दोनों कठिनाइयाँ उनके सामने भी अवश्य थीं, फिर भी उनके तटस्थ तत्त्वचिन्तन और निर्भयत्व ने उन्हें चुप न रखा। ऐसे प्राचार्यों में प्रथम हैं कुन्दकुन्द और दूसरे हैं याकिनीसूनु हरिभद्र । कुन्दकुन्द आध्यात्मिक व गम्भीर विचारक रहे। उनके सामने सर्वज्ञत्व का परम्परागत अर्थ तो था ही, पर जान पड़ता है कि उन्हें मात्र परम्परावलम्बित भाव में सन्तोष न हुश्रा । अतएव प्रवचनसार आदि ग्रन्थों में जहाँ एक ओर उन्होंने परम्परागत त्रैकालिक सर्वस्व का लक्षण निरूपण किया वहाँ नियमसार में उन्होंने व्यवहार निश्चय का विश्लेषण करके सर्वज्ञत्व का और भी भाव सुझाया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि लोकालोक जैसी श्रात्मेतर वस्तुओं को जानने की बात कहना यह व्यवहारनय है और स्वात्मस्वरूप को जानना व उसमें निमग्न होना यह निश्चयनय है | यह ध्यान में रहे कि समयसार में उन्होंने खुद ही व्यवहारनय को असद्भत-अपारमार्थिक कहा है । कुन्दकुन्द के विश्लेषण का श्राशय यह जान पड़ता है कि उनकी दृष्टि में श्रात्मस्वरूप का ज्ञान ही मुख्य व अन्तिम ध्येय रहा है। इसलिए उन्होंने उसी को पारमार्थिक या निश्चयनयसम्मत कहा। एक ही उपयोग में एक ही समय जब आत्मा और आत्मेतर वस्तुओं का तुल्य प्रतिभास होता हो तब उसमें यह विभाग नहीं किया जा सकता कि लोकालोक का भास व्यवहारनय है और और श्रात्मतत्त्व का भास निश्चयनय है। दोनों भास या तो पारमार्थिक हैं या दोनों व्यावहारिक हैं--ऐसा ही कहना पड़ेगा फिर भी जत्र कुन्दकुन्द जैसे
१. परिणमदो खलु गाणं पच्चक्खा सम्बदवपजाया ।
सो ऐव ते विजाणदि श्रोग्गह पुव्वाहि किरियाहिं । णस्थि परोक्खं किंचिवि समंत सव्वक्वगुणसमिद्धस्स । अक्खातीदस्स सदा सयमेव हि णाणजादस्स ॥
-प्रवचनसार १.२१-२. २. अप्पसरूवं पेच्छदि लोयालोयं ण केवली भगवं । जह कोइ भाइ एवं तस्स ३ किं दूसणं होई ॥
-नियमसार गा. १६६. ३. ववहारोऽभूयत्यो भूयत्यो देसिदो दु सुद्धणश्रो । भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइटी इवह जीवो ॥
--समयसार गा.११.
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सर्वज्ञत्व और उसका अर्थ
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अध्यात्मवेदी ने निश्चय व्यवहार का विश्लेषण किया तब यह समझना कठिन नहीं कि परम्परागत मान्यता को चालू रखने के उपरान्त भी उनके मन में एक नया अर्थ अवश्य सूझा जो उन्होंने अपने प्रिय नयवाद से विश्लेषण के द्वारा सूचित किया जिससे श्रद्धालु वर्ग की श्रद्धा भी बनी रहे और विशेष जिज्ञासु व्यक्ति के लिए एक नई बात भी सुझाई जाय ।
असल में कुन्दकुन्द का यह निश्चयवाद उपनिषदों, बौद्धपिटकों और प्राचीन बैन उल्लेखों में भी जुदे-जुदे रूप से निहित था, पर सचमुच कुन्दकुन्द ने उसे जैन परिभाषा में नए रूप से प्रगट किया ।
ऐसे ही दूसरे श्राचार्य हुए हैं याकिनीसूनु हरिभद्र । वे भी अनेक तर्कग्रन्थों में त्रैकालिक सर्वज्ञत्व का हेतुवाद से समर्थन कर चुके थे, पर जब उनको उस हेतुवाद में त्रुटि व विरोध दिखाई दिया तब उन्होंने सर्वज्ञत्व का सर्वसम्प्रदाय श्रविरुद्ध अर्थ किया व अपना योगसुलभ माध्यस्थ्य सूचित किया । मैंने प्रस्तुत लेख में कोई नई बात तो कही नहीं है, पर कहीं है तो वह इतनी ही है कि अगर सर्वज्ञत्व को तर्क से, दलील से या ऐतिहासिक क्रम से समझना या समझाना हो तो पुराने जैन ग्रन्थों के कुछ उल्लेखों के आधार पर व उपनिषदों तथा पिटकों के साथ तुलना करके मैंने जो अर्थ समझाया है वह शायद सत्य के निकट अधिक है। त्रैकालिक सर्वज्ञत्व को मानना हो तो श्रद्धापुष्टि व चरित्रशुद्धि के ध्येय से उसको मानने में कोई नुकसान नहीं । हाँ, इतना समझ रखना चाहिए कि वैसा सर्वशत्व हेतुवाद का विषय नहीं, वह तो धर्मास्तिकाय आदि की तरह श्रहेतुवाद का ही विषय हो सकता है। ऐसे सर्वज्ञत्व के समर्थन में हेतुवाद का प्रयोग किया जाय तो उससे उसे समर्थित होने के बजाय अनेक अनिवार्य विरोधों का ही सामना करना पड़ेगा ।
श्रद्धा का विषय मानने के दो कारण हैं । एक तो पुरातन श्रनुभवी योगिनों के कथन की वर्तमान अज्ञान स्थिति में श्रवहेलना न करना । और - दूसरा वर्तमान वैज्ञानिक खोज के विकास पर ध्यान देना । श्रभी तक के प्रायोगिक विज्ञान ने टेलीपथी, क्लेरबोयन्स और प्रीकोग्नीशन की स्थापना से इतना तो सिद्ध कर ही दिया है कि देश काल की मर्यादा का अतिक्रमण करके भी ज्ञान संभव है । यह संभव कोटि योग परंपरा के ऋतंभरा और बैन श्रादि परंपरा की सर्वज्ञ दशा की ओर संकेत करती है सर्वज्ञत्व का इतिहास
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भारत में हर एक सम्प्रदाय किसी न किसी रूप से सर्वशत्व के ऊपर अधिक भार देता आ रहा है। हम ऋग्वेद आदि वेदों के पुराने भागों में देखते हैं कि
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जैन धर्म और दर्शन सूर्य, वरुण, इन्द्र आदि किसी देव की स्तुति में सीधे तारे से या गर्मित रूप से सर्वशत्व का भाव सूचित करने वाले सर्वचेतस सहस्त्रचतु' श्रादि विशेषण प्रयुक्त हैं । उपनिषदों में खासकर पुराने उपनिषदों में भी सर्वज्ञत्व के सूचक और प्रति पादक विशेषण एवं वर्णन का विकास देखा जाता है। यह वस्तु इतना साबित करने के लिए पर्याप्त है कि भारतीय मानस अपने सम्मान्य देव या पूज्य व्यक्ति में सर्वशत्व का भाव श्रारोपित बिना किये संतुष्ट होता न था। इसीसे हर एक सम्प्रदाय अपने पुरस्कर्ता या मूल प्रवर्तक माने जाने वाले व्यक्ति को सर्वज्ञ मानता था | साम्प्रदायिक बाड़ों के बाजार में सर्वज्ञत्व के द्वारा अपने प्रधान पुरुष का मूल्य ओंकने और अँकवाने की इतनी अधिक होड़ लगी थी कि कोई पुरुष जिसे उसके अनुयायी सर्वज्ञ कहते और मानते थे वह खुद अपने को उस माने में सर्वज्ञ न होने की बात कहे तो अनुयायियों की तप्ति होती न थी । ऐसी परिस्थिति में हर एक प्रवर्तक या तीर्थकर का उस-उस सम्प्रदाय के द्वारा सर्वज्ञरूप से माना जाना और उस रूप में उसकी प्रतिष्ठा निर्माण करना यह अनिवार्य बन जाय तो कोई आश्चर्य नहीं।
हम इतिहास काल में अाकर देखते हैं कि खुद बुद्ध ने अपने को उस अर्थ में सर्वश मानने का इनकार किया है कि जिस अर्थ में ईश्वरवादी ईश्वर को
और जैन लोग महावीर श्राटि तीर्थङ्करों को सर्वज्ञ मानते-मनाते थे। ऐसा होते हुए भी श्रागे जाकर सर्वशत्व मानने मनाने की होड़ ने बुद्ध के कुछ शिष्यों को ऐसा बाधित किया कि वे ईश्वरवादी और पुरुषसर्वशत्ववादी की तरह ही बुद्ध का सर्वज्ञत्व युक्ति प्रयुक्ति से स्थापित करें। इससे स्पष्ट है कि हर एक साम्प्रदायिक श्राचार्य और दूसरे अनुयायी अपने सम्प्रदाय की नीव सर्वज्ञत्व माननेमनाने और युक्ति से उसका स्थापन करने में देखते थे। __इस तार्किक होड़ का परिणाम यह आया कि कोई सम्प्रदाय अपने मान्य पुरुष या देव के सिवाय दूसरे सम्प्रदाय के मान्य पुरुष या देव में वैसा सर्वशत्व मानने को तैयार नहीं जैसा कि वे अपने इष्टतम पुरुष या देव में सरलता से मानते पाते थे । इससे प्रत्येक सम्प्रदाय के बीच इस मान्यता पर लम्बे अरसे से बाद-विवाद होता आ रहा है। और सर्वशत्व श्रद्धा की वस्तु मिटकर तर्क की वस्तु बन गया। जब उसका स्थापन तर्फ के द्वारा होना शुरू हुआ तब हर एक तार्किक अपने बुद्धि-बल का उपयोग नये-नये तकों के उद्भावन में करने लगा।
१. ऋग्वेद १.२३.३; १०.८१.३ । २. मज्झिमनिकाय-चूलमालुक्यपुत्तसुत्त प्रमाणवार्तिक २.३२-३३ । ३. तत्वसंग्रहपंजिका पृ०८६३ ।
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सर्वशत्व और उसका अर्थ इसके कारण एक तरफ से जैसे सर्वशत्व के अनेक अर्थों की सृष्टि हुई। वैसे ही उसके समर्थन की अनेक युक्तियाँ भी व्यवहार में आई। जैनसंमत अर्थ .
जहाँ तक जैन परम्परा का सम्बन्ध है उसमें सर्वशत्व का एक ही अर्थ माना जाता रहा है और वह यह कि एक ही समय में त्रैकालिक समग्र भावों को साक्षात् जानना । इसमें शक नहीं कि आज जो पुराने से पुराना जैन श्रागमों का भाग उपलब्ध है उसमें भी सर्वशत्व के उक्त अर्थ के पोषक वाक्य मिल जाते हैं परन्तु सर्वज्ञत्व के उस अर्थ पर तथा उसके पोषक वाक्यों पर स्वतन्त्र बुद्धि से विचार करने पर तथा उन्हीं अति पुराण आगमिक भागों में पाये जाने वाले दूसरे वाक्यों के साथ विचार करने पर यह स्पष्ट जान पड़ता है कि मूल में सर्वज्ञस्व का वह अर्थ जैन परम्परा को भी मान्य न था जिस अर्थ को आज वह मान रही है और जिसका समर्थन सैकड़ों वर्ष से होता आ रहा है।
प्रश्न होगा कि तब जैन परम्परा में सर्वज्ञत्व का असली अर्थ क्या था? इसका उत्तर श्राचरांग, भगवती श्रादि के कुछ पुराने उल्लेखों से मिल जाता है। श्राचारांग में कहा है कि जो एक को जानता है वह सर्व को जानता है।
और जो सबको जानता वह एक को जानता है।' इस वाक्य का तात्पर्य टीकाकारों और तार्किकों ने एक समय में त्रैकालिक समग्र भावों के साक्षात्काररूप से फलित किया है। परन्तु उस स्थान के आगे-पीछे का सम्बन्ध तथा आगे पीछे, के वाक्यों को ध्यान में रखकर हम सीधे तौर से सोचें तो उस वाक्य का तात्पर्य दूसरा ही जान पड़ता है। वह तात्पर्य मेरी दृष्टि से यह है कि जो एक ममत्व, प्रमाद या कषाय को जानता है वह उसके क्रोधादि सभी आविर्भावों, पर्यायों या प्रकारों को जानता है और जो क्रोध, मान श्रादि सब आविर्भावों को या पर्यायों को जानता है वह उन सब पर्यायों के मूल और उनमें अनुगत एक ममत्व या बन्धन को जानता है। जिस प्रकरण में उक्त वाक्य आया है वह प्रकरण मुमुक्षु के लिए कषायत्याग के उपदेश का और एक ही जड़ में से जुदे-जुदे कषाय रूप परिणाम दिखाने का है। यह बात ग्रन्थकार ने पूर्वोक्त वाक्य से तुरंत ही धागे दूसरे वाक्य के द्वारा स्पष्ट की है जिसमें कहा गया है कि "जो एक को नमाता है दबाता है या वश करता है वह बहुतों को नमाता दबाता या वश करता है और जो बहु को नमाता है वह एक को नमाता है।'
१. तत्त्वसंग्रह पृ०८४६. २. आचा० पृ० ३६२ (द्वि० आवृत्ति)। ३. जे एगं जाणह से सव्वं जाण जे सव्वं जाणइ से एग जायद ३-४
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जैन धर्म और दर्शन
नमाना, दबाना या वश · लागू हो नहीं सकता । "एक अर्थात् प्रमाद को
कषाय है कषाय ही
में जैन
करना मुमुत्तु के लिए कषाय के सिवाय अन्य वस्तु में जिससे इसका तात्पर्य यह निकलता है कि जो मुमुक्षु वश करता है वह बहुत कषायों को वश करता है और जो बहुत कषायों को वश करता है वह एक अर्थात् प्रमाद को वश करता ही है । स्पष्ट है कि नमाने की और वश करने की वस्तु जब तब ठीक उसके पहले आये हुए वाक्य में जानने की वस्तु भी 'प्रकरणप्राप्त है । आध्यात्मिक साधना और जीवन शुद्धि के क्रम तत्त्वज्ञान की दृष्टि से श्रसव के ज्ञान का और उसके निरोध का ही महत्त्व है । जिसमें कि त्रैकालिक समग्र भावों के साक्षात्कार का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है । उसमें प्रश्न उठता है तो मूल दोष और उसके विविध श्राविर्भावों के जानने का और निवारण करने का । ग्रन्थकार ने वहाँ यही बात बतलाई है । इतना ही नहीं, बल्कि उस प्रकरण को खतम करते समय उन्होंने वह भाव 'जे कोहदंसी से माणदंसो, जे माणदंसी से मायादंसी, जे मायादंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पिज्जदंसी, जे पिज्जदंसी से दोससी, जे दोसदंसी से मोहदंसी, जे मोहदंसी से गम्मदंसी, जे गन्मदंसी से जम्मदंसी, जे जम्मदंसी से मारदंसी, जे मारदंसी से नरयदंसी, जे नरयदंसी से निरियदंसी, जे निरियदंसी से दुक्सदंसी ।' इत्यादि शब्दों में स्पष्ट रूप में प्रकट भी किया है । इसलिए 'जे एगं जाई' इत्यादि वाक्यों का जो तात्पर्य मैंने ऊपर बतलाया वही वहाँ पूर्णतया संगत है और दूसरा नहीं । इसलिए मेरी राय में जैन परम्परा में सर्वज्ञत्व का असली अर्थ आध्यात्मिक साधना में उपयोगी सच तत्वों का ज्ञान यही होना चाहिए; नहीं कि त्रैकालिक समग्र भावों का साक्षात्कार ।
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उक्त वाक्यों को आगे के तार्किकों ने एक समय में त्रैकालिक भावों के साक्षात्कार अर्थ में घटाने की जो कोशिश की है वह सर्वज्ञत्व स्थापन की साम्प्रदायिक होड़ का नतीजा मात्र है । भगवती सूत्र में महाबीर के मुख्य शिष्य इन्द्रभूति और जमाली का एक संवाद है जो सर्वज्ञत्व के अर्थ पर प्रकाश डालता है। जमाली महाबीर का प्रतिद्वंद्वी है । उसे उसके अनुयायी सर्वश मानते होंगे । इसलिए जब वह एक बार इन्द्रभूति से मिला तो इन्द्रभूति ने उससे प्रश्न किया कि कहो जमाली ! तुम यदि सर्वश हो तो जवाब दो कि लोक शाश्वत है या अशाश्वत ? जमाली चुप रहा तिस पर महावीर ने कहा कि तुम कैसे सर्वज्ञ ? देखो इसका उत्तर मेरे सर्व शिष्य दे सकते हैं तो भी मैं उत्तर देता हूँ कि
१. स्याद्वादमंजरी का० १ । २. भगवती ६. ६ ।
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सर्वशव और उसका अर्थ
५५७. द्रव्यार्थिक दृष्टि से लोक शाश्वत है और पर्यायार्थिक दृष्टि से अशाश्वत । महावीर के इस उत्तर से सर्वशत्व के जैनाभिप्रेत अर्थ के असली स्तर का पता चल जाता है कि जो द्रव्य-पर्याय उभय दृष्टि से प्रतिपादन करता है वही सर्वज्ञ है। महावीर ने जमाली के सम्मुख एक समय में त्रैकालिक भावों को साक्षात् जाननेवाले रूप से अपने को वर्णित नहीं किया है। जिस रूप में उन्होंने अपने को सर्वज्ञ वणित किया वह रूप सारी जैन परम्परा के मूल गत स्रोत से मेल भी खाता है और प्राचारोग के उपयुक्त अति पुगने उल्लेखों से भी मेल खाता है। उसमें न तो अत्युक्ति है, न अल्पोक्ति; किंतु वास्तविक स्थिति निरूपित हुई है। इसलिए मेरी राय में जैन परम्परा में माने जानेवाले सर्वज्ञत्व का असली अर्थ वही होना चाहिए न कि पिछला तर्क से सिद्ध किया जानेवाला-एक समय में सब भावों का साक्षात्कार रूप अर्थ। ____ मैं अपने विचार की पुष्टि में कुछ ऐसे भी संवादि प्रमाण का निर्देश करना उचित समझता हूँ जो भगवान् महावीर के पूर्वकालीन एवं समकालीन हैं। हम पुराने उपनिषदों में देखते हैं कि एक ब्रह्मतत्व के जान लेने पर अन्य सब अविज्ञात विज्ञात हो जाता है ऐसा स्पष्ट वर्णन है और इसके समर्थन में वहीं दृष्टान्त रूप से मृत्तिका का निर्देश करके बतलाया है कि जैसे एक ही मृत्तिका सत्य है, दूसरे घट-शराव आदि विकार उसी के नामरूप मात्र हैं, वैसे ही एक ही ब्रह्म पारमार्थिक सत्य है बाकी का विश्व प्रपंच उसी का विलासमात्र है (जैन परिभाषा में कहें तो बाकी का सारा जगत ब्रह्म का पर्यायमात्र है। ) उसकी परब्रह्म से अलग सत्ता नहीं । उपनिषद् के ऋषि का भार ब्रह्मज्ञान पर है, इसलिए वह ब्रह्म को ही मूल में पारमार्थिक कहकर बाकी के प्रपंच को उससे भिन्न मानने पर जोर नहीं देता । यह मानो हुई सर्वसम्मत बात है कि जो जिस तत्त्व का मुख्यतया ज्ञेय, उपादेय या हेय रूप से प्रतिपादन करना चाहता है वह उसी पर अधिक से अधिक भार देता है। उपनिषदों का प्रतिपाद्य आत्मतत्त्व या परब्रह्म है। इसीलिए उसी के ज्ञान पर भार देते हुए ऋषियों ने कहा कि आत्मतत्व के जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है। इस स्थल पर मृत्तिका का दृष्टान्त दिया गया है, वह भी इतना ही सूचित करता है कि जुदे-जुदे विकारों और पर्यायों में मृत्तिका अनुगत है, वह विकारों की तरह अस्थायी नहीं, जैसा कि विश्व के प्रपंच में ब्रह्म अस्थायी नहीं। हम उपनिषदगत
१. आत्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्व विदितं. भवति--बृहदारण्यकोपनिषद् २. ४.५ ।
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जैन धर्म और दर्शन
इस वर्णन में यह स्पष्ट देखते हैं कि इसमें द्रव्य श्रीर पर्याय दोनों का वर्णन है; पर भार अधिक द्रव्य पर है। इसमें कार्य-कारण दोनों का वर्णन है; पर भार तो अधिक मूल कारण - द्रव्य पर ही है। ऐसा होने का सबब यही है कि उपनिषद् के ऋषि मुख्यतया श्रात्मस्वरूप के निरूपण में ही दत्तचित्त हैं और दूसरा सच वर्णन उसी के समर्थन में है । यह औपनिषदिक भाव ध्यान में रखकर श्राचारांग के 'जे एगं जागर से सव्वं जागर' इस वाक्य का अर्थ और प्रकरण संगति सोचें तो स्पष्ट ध्यान में आ जायगा कि आचारांग का उक्त वाक्य द्रव्य पर्यायपरक मात्र है । जैन परम्परा उपनिषदों की तरह एक मात्र ब्रह्म या ग्राम द्रव्य के अखण्ड ज्ञान पर भार नहीं देती, वह आत्मा की या द्रव्यमात्र की भिन्नभिन्न पर्याय रूप अवस्थाओं के ज्ञान पर भी उतना ही भार पहले से देती आई है । इसीलिए श्राचारांग में दूसरा वाक्य ऐसा है कि जो सबको – पर्यायों को जानता है वह एक को -- द्रव्य को जानता है । इस अर्थ की जमाली - इन्द्रभूति संवाद से तुलना की जाय तो इसमें सन्देह ही नहीं रहता कि जैन-परम्परा का सर्वज्ञत्व संबंधी दृष्टिकोण मूल में केवल इतना ही था कि उभय को समान भाव से जानना ही ज्ञान की पूर्णता है ।
द्रव्य और पर्याय
बुद्ध जब मालुक्य पुत्र नामक अपने शिष्य से कहते हैं कि मैं चार श्रार्य सत्यों के ज्ञान का ही दावा करता हूँ और दूसरे अगम्य एवं काल्पनिक तत्वों के ज्ञान का नहीं, तत्र वह वास्तविक भूमिका पर है । उसी भूमिका के साथ महावीर के सर्वज्ञत्व की तुलना करने पर भी फलित यही होता है कि अत्युक्ति या
पोक्ति नहीं करने वाले संतप्रकृति के महावीर द्रव्यपर्यायवाद की पुरानी निर्ग्रन्थ परम्परा के ज्ञान को ही सर्वज्ञत्वरूप मानते होंगे। जैन और बौद्ध परम्परा में इतना फर्क अवश्य रहा है कि अनेक तार्किक बौद्ध विद्वानों ने बुद्ध को कालिकज्ञान के द्वारा सर्वज्ञ स्थापित करने का प्रयत्न किया है तथापि अनेक असाधारण बौद्ध विद्वानों ने उनको सीधे सादे अर्थ में ही सर्वज्ञ घटाया है । जब कि जैन परम्परा में सर्वज्ञ का सीधा सादा अर्थ भुला दिया जाकर उसके स्थान में तर्कसिद्ध अर्थ ही प्रचलित और प्रतिष्ठित हो गया है और उसी अर्थ के संस्कार में पलने वाले जैन तार्किक आचार्यों को भी यह सोचना श्रति मुश्किल हो गया है कि एक समय में सर्व भावों के साक्षात्काररूप सर्वज्ञत्व कैसे असंगत है ? इसलिए वे जिस तरह हो, मामूली गैरमामूली सब युक्तियों से अपना अभिप्रेत सर्वज्ञत्व सिद्ध करने के लिए ही उतारू रहे हैं ।
१. चूलमालुक्य सुत्त ।
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सर्वशत्व और उसका अर्थ
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करीब ढाई हजार वर्ष की शास्त्रीय जैन- परम्परा में हम एक ही श्रपवाद पाते हैं जो सर्वशत्व के अर्थ की दूसरी बाजू की ओर संकेत करता है । विक्रम की आठवीं शताब्दी में याकिनीसूनु हरिभद्र नामक श्राचार्य हुए हैं I उन्होंने अपने अनेक तर्कग्रन्थों में सर्वशत्व का समर्थन उसी अर्थ में किया है जिस अर्थ में अपने पूर्ववर्ती श्वेताम्बर दिगम्बर श्रनेक विद्वान् करते आये हैं । फिर भी उनकी तार्किक तथा समभावशील सत्यग्राही बुद्धि में वह समर्थन खरा जान पड़ता है । हरिभद्र जब योग जैसे अध्यात्मिक और सत्यगामी विषय पर लिखने लगे तो उन्हें यह बात बहुत खटकी कि महावीर को तो सर्वज्ञ कहा जाय और सुगत, कपिल श्रादि जो वैसे ही प्राध्यात्मिक हुए हैं उन्हें सर्वज्ञ कहा या माना न जाय । यद्यपि वे अपने तर्कप्रधान ग्रन्थों में सुगत, कपिल श्रादि के सर्वज्ञत्व का निषेध कर चुके थे; पर योग के विषय ने उनकी दृष्टि बदल दी और उन्होंने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ योगदृष्टिसमुच्चय में सुगत, कपिल आदि सभी आध्यात्मिक और सद्गुणी पुरुषों के सर्वज्ञत्व को निर्विवाद रूप से मान लिया और उसका समर्थन भी किया (का० १०२ - १०८ ) । समर्थन करना इसलिए अनिवार्य हो गया था कि वे एक बार सुगत कपिल आदि के सर्वशत्व का निषेध कर चुके थे, पर अब उन्हें वह तर्कजाल मात्र लगती थी ( का० १४० - १४० ) । हरिभद्र का उपजीवन और अनुगमन करनेवाले अंतिम प्रबलतम जैन तार्किक यशोविजयजी ने भी अपनी कुतर्कग्रहनिवृत्ति' द्वात्रिंशिका में हरिभद्र की बात का हो निर्भयता से और स्पष्टता से समर्थन किया है। हालांकि यशोविजययी ने भी अन्य अनेक ग्रन्थों में सुगत आदि के सर्वज्ञत्व का श्रात्यन्तिक खण्डन किया है ।
हमारे यहाँ भारत में एक यह भी प्रणाली रही है कि प्रबल से प्रबल चिंतक और तार्किक भी पुरानी मान्यताओं का समर्थन करते रहे और नया सत्य प्रकट करने में कभी-कभी हिचकाए भी । यदि हरिभद्र ने वह सत्य योगदृष्टिसमुच्चय में जाहिर किया न होता तो उपाध्याय यशोविजयजी कितने ही बहुश्रुत तार्किक विद्वान् क्यों न हों पर शायद ही सर्वशव के इस मौलिक भाव का समर्थन करते । इसलिए
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१. धर्मवाद के क्षेत्र में श्रद्धागम्य वस्तु को केवल तर्कबल से स्थापित करने का श्राग्रह ही कुतर्कग्रह है । इसकी चर्चा में उपाध्यायजी ने बत्तीसी में मुख्यतया सर्वज्ञविषयक प्रश्न ही लिया है। और ग्रा० हरिभद्र के भाव को समग्र बत्तीसी में इतना विस्तार और वैशद्य के साथ प्रकट किया है कि जिसे पढ़कर तटस्थ चिन्तक के मन में निश्चय होता है कि सर्वज्ञत्व एक मात्र श्रद्धागम्य है, और तर्कगम्य नहीं ।
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चैन धर्म और दर्शन सभी गुणवान् सर्वज्ञ है--इस उदार और नियाज असाम्प्रदायिक कथन का श्रेय जैन परम्परा में प्राचार्य हरिभद्र के सिवाय दूसरे किसी के नाम पर नहीं आता। हरिभद्र की योगदृष्टिगामिनी वह उक्ति भी मात्र उस ग्रन्थ में सुषस रूप सें निहित है। उसकी ओर जैन-परम्परा के विद्वान् या चिन्तक न तो ध्यान देते हैं और न सब लोगों के सामने उसका भाव ही प्रकाशित करते हैं। वे जानते हए भी इस डर से अनजान बन जाते हैं कि भगवान् महावीर का स्थान फिर इतना ऊँचा न रहेगा, वे साधारण अन्य योगी जैसे ही हो जायेंगे। इस डर
और. सत्य की ओर आँख मूंदने के कारण सर्वशव की चालू मान्यता में कितनी बेशुमार असंगतियाँ पैदा हुई हैं और नया विचारक जगत किस तरह सर्वज्ञत्व के चालू अर्थ से सकारण ऊब गया है, इस बात पर पण्डित या त्यागी विद्वान् विचार ही नहीं करते । वे केवल उन्हीं सर्वज्ञत्व समर्थक दलीलों का निर्जीष
और निःसार पुनरावर्तन करते रहते हैं जिनका विचारजगत में अब कोई विशेष मूल्य नहीं रहा है। सर्वज्ञविचार की भूमिकाएँ
ऊपर के वर्णन से यह भली भाँति मालूम हो जाता है कि सर्वज्ञत्व विषयक बिचारधारा की मुख्य चार भूमिकाएँ हैं । पहली भूनिका में सूक्त के प्रणेता . ऋषि अपने-अपने स्तुत्य और मान्य देवों की सर्वज्ञत्व के सूचक विशेषणों के द्वारा केवल महत्ता भर गाते हैं, उनकी प्रशंसा भर करते हैं, अर्थात् अपनेअपने इष्टतम देव की असाधारणता दर्शित करते हैं। वहाँ उनका तात्पर्य वह नहीं है जो आगे जाकर उन विशेषणों से निकाला जाता है। दूसरी भूमिका वह है जिसमें ऋषियों और विद्वानों को प्राचीन भाषा समृद्धि के साथ उक्त विशेषणरूप शब्द भी विरासत में मिले हैं, पर वे ऋषि या संत उन विशेषणों का अर्थ अपने ढंग से सूचित करते हैं। जिस ऋषि को पुराने देवों के स्थान में एक मात्र ब्रह्मतत्त्व या श्रात्मतत्त्व ही प्रतिपाद्य तथा स्तुत्य अँचता है वह ऋषि उस तत्त्व के ज्ञान मात्र में सर्गज्ञत्व देखता है और जो संत आत्मतत्व के बजाय उसके स्थान में हेय और उपादेय रूप से प्राचार मार्ग का प्राधान्य स्थापित करना चाहता है वह उसो आचारमार्गान्तर्गत चतुर्विध आर्य सत्य के दर्शन में ही सर्वज्ञत्व की इतिश्री मानता है और जो संत अहिंसाप्रधान प्राचार पर तथा द्रव्य-पदाथ दृष्टिरूप विभज्यवाद के स्वीकार पर अधिक भार देना चाहता है वह उसी के ज्ञान में सर्वज्ञत्व समझता है । तीसरी भूमिका वह है जिसमें दूसरी भूमिका की वास्तविकता और अनुभवगम्यता के स्थान में तर्कमूलक सर्वशव के
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________________ सर्वशत्व और उसका अर्थ अर्थ की और उसकी स्थापक युक्तियों की कल्पनावृष्टि विकसित होती है। जिसमें अनुभव और समभाव की अवगणना होकर अपने-अपने मान्य देवों या पुरुषों की महत्ता गाने की धुन में दूसरों की वास्तविक महत्ता का भी तिरस्कार किया जाता है या वह भूला दी जाती है / चौथी भूमिका वह है जिसमें फिर अनुभव और माध्यस्थ्य का तत्व जागरित होकर दूसरी भूमिका की वास्तविकता और बुद्धिगम्यता को अपनाया जाता है। इसमें संदेह नहीं कि यह चौथी भूमिका ही सत्य के निकट है, क्योंकि वह दूसरी भूमिका से तत्त्वतः मेल खाती है. और मिथ्या कल्पनाओं को तथा साम्प्रदायिकता की होड़ को स्थान नहीं देती। ई० 1646 ] अप्रकाशित ]