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सर्वशत्व और उसका अर्थ इसके कारण एक तरफ से जैसे सर्वशत्व के अनेक अर्थों की सृष्टि हुई। वैसे ही उसके समर्थन की अनेक युक्तियाँ भी व्यवहार में आई। जैनसंमत अर्थ .
जहाँ तक जैन परम्परा का सम्बन्ध है उसमें सर्वशत्व का एक ही अर्थ माना जाता रहा है और वह यह कि एक ही समय में त्रैकालिक समग्र भावों को साक्षात् जानना । इसमें शक नहीं कि आज जो पुराने से पुराना जैन श्रागमों का भाग उपलब्ध है उसमें भी सर्वशत्व के उक्त अर्थ के पोषक वाक्य मिल जाते हैं परन्तु सर्वज्ञत्व के उस अर्थ पर तथा उसके पोषक वाक्यों पर स्वतन्त्र बुद्धि से विचार करने पर तथा उन्हीं अति पुराण आगमिक भागों में पाये जाने वाले दूसरे वाक्यों के साथ विचार करने पर यह स्पष्ट जान पड़ता है कि मूल में सर्वज्ञस्व का वह अर्थ जैन परम्परा को भी मान्य न था जिस अर्थ को आज वह मान रही है और जिसका समर्थन सैकड़ों वर्ष से होता आ रहा है।
प्रश्न होगा कि तब जैन परम्परा में सर्वज्ञत्व का असली अर्थ क्या था? इसका उत्तर श्राचरांग, भगवती श्रादि के कुछ पुराने उल्लेखों से मिल जाता है। श्राचारांग में कहा है कि जो एक को जानता है वह सर्व को जानता है।
और जो सबको जानता वह एक को जानता है।' इस वाक्य का तात्पर्य टीकाकारों और तार्किकों ने एक समय में त्रैकालिक समग्र भावों के साक्षात्काररूप से फलित किया है। परन्तु उस स्थान के आगे-पीछे का सम्बन्ध तथा आगे पीछे, के वाक्यों को ध्यान में रखकर हम सीधे तौर से सोचें तो उस वाक्य का तात्पर्य दूसरा ही जान पड़ता है। वह तात्पर्य मेरी दृष्टि से यह है कि जो एक ममत्व, प्रमाद या कषाय को जानता है वह उसके क्रोधादि सभी आविर्भावों, पर्यायों या प्रकारों को जानता है और जो क्रोध, मान श्रादि सब आविर्भावों को या पर्यायों को जानता है वह उन सब पर्यायों के मूल और उनमें अनुगत एक ममत्व या बन्धन को जानता है। जिस प्रकरण में उक्त वाक्य आया है वह प्रकरण मुमुक्षु के लिए कषायत्याग के उपदेश का और एक ही जड़ में से जुदे-जुदे कषाय रूप परिणाम दिखाने का है। यह बात ग्रन्थकार ने पूर्वोक्त वाक्य से तुरंत ही धागे दूसरे वाक्य के द्वारा स्पष्ट की है जिसमें कहा गया है कि "जो एक को नमाता है दबाता है या वश करता है वह बहुतों को नमाता दबाता या वश करता है और जो बहु को नमाता है वह एक को नमाता है।'
१. तत्त्वसंग्रह पृ०८४६. २. आचा० पृ० ३६२ (द्वि० आवृत्ति)। ३. जे एगं जाणह से सव्वं जाण जे सव्वं जाणइ से एग जायद ३-४
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