Book Title: Saptapadi Shastra Author(s): Sagarchandrasuri Publisher: Mandal SanghPage 13
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " वेदमुणितिहिसुवरिसे, पंडियसिरिसाहुरयणसीसेण । पासचंदेण विहिया, ठवणा पंचासिया एसा ।। ५३ ॥" आ ग्रन्थो रचवानो प्रयोजन-ते वखते जैनोमां वातावरण घणोज कलुषित थएल परस्पर द्वेष, इर्ष्या, सत्य वस्तुने ढांकनारा, साधु-मुनिओने न छाजे तेवी बाह्यधमाधमआडंबरने सेवनारा वेषधारीओनी प्रबलता वधि गएल हती, तेमज सत्यवस्तुने ओलवनारा प्रगट थया हता. कारणके सोळसेनीसदीमां जैन वेषधारीओनी अंदर शीथिलता, क्वचित् क्रियाजडता, केटलाएकनी सावधक्रियाओमां प्रवृत्ति, अने केटलाएकनी आगमप्रतिपादित वस्तुस्वरूपमा अनादरता फेलाएल हती. एज टाइममां सूत्र आणा ओलंघी स्वच्छंदपणे लोकामती, विजयामती अने कडवामती विगेरे प्रगट थइ पोतानी मान्यता फेलावी रह्या हता. तेवा समयमां सूत्र-आगमनी वाणीना विचारक संपूर्णवैरागी, शुद्धचारित्र पालन करवामां महान् उत्साही, पोताना गच्छनी मर्यादामां रहीने सिद्धान्ततत्वना विवेकपुरःसर गवेषक आत्मार्थी आ परमपूज्यआचार्य महाराजे मुनिमार्गनी शुद्ध देशना निर्भयपणे करवा मांडी, तेने जोइ घणा शिथिलाचारी-स्वच्छंदीओने इर्ष्या पेदा थइ, यद्वा तद्वा फाये तेम बोलवा मांड्या "एमणे तो नको मत काढयोछे, पोतानो गच्छ चलावयानो आग्रह छे, तेथो उत्कृष्टक्रिया करी लोकोने रंजन करेछे. शिथिलाचार कांइ आजकाळनो थोडोजछे, एतो चालतोज For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
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