Book Title: Sanskruti ka Swarup Bharatiya Sanskrut aur Jain Sanskruti
Author(s): Vijayendra Snataka
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 3
________________ देखा गया है कि आदिम समाज में कलात्मक दृष्टि से कभी-कभी अधिक समृद्धि पायी जाती है । यांत्रिक आविष्कारों से समृद्ध होने पर भी कुछ जातियाँ सांस्कृतिक दृष्टि से पिछड़ी होती हैं और उनका चारित्रिक स्तर भी हीन कोटि का होता है । सभ्यता की दृष्टि से अमरीका आज समृद्ध है किन्तु मानव मूल्य एवं कलात्मक संस्कार की दृष्टि से वह संस्कृति के स्तर पर निर्धन ही माना जाएगा । पाश्चात्य विचारकों ने संस्कृति और सभ्यता शब्दों के प्रयोग पर ही नहीं, इनके क्षेत्र और अवधारणा पर भी विचार व्यक्त किए हैं। ऊंची संस्कृति के एक खास पहलू को सभ्यता कहने वाले विद्वान् इसे संस्कृति का मात्र पर्याय स्वीकार नहीं करते । मैकाइवर ने सभ्यता को उपयोगिता के साथ और संस्कृति को मौलिक मूल्यों के साथ जोड़कर देखने की बात कही है। इसीलिए कभीकभी सभ्यता का संस्कृति से विरोध भी संभव हो सकता है। कुछ विद्वान् परम्परा को संस्कृति के साथ रखकर इसे नैतिक मूल्यों तथा सभ्यता को व्यावहारिक मूल्यों की सीमा में रखकर इनका पार्थक्य व्यक्त करते हैं । जो लोग संस्कृति को सामाजिक विरासत या सामाजिक परंपरा में देखते हैं वे भी इनका पार्थक्य स्पष्टतः रेखांकित नहीं कर पाते। इसी विचार - सरणि में ऐसे भी व्यक्ति हैं जो कुटुम्ब 'के आचरण को संस्कृति के विकास में प्रमुख स्थान देते हैं किंतु साम्यवादी चिंतन में परंपरा को कोई स्थान नहीं है । मार्क्स ने तो स्पष्टतः परम्परा को एक भयावना स्वप्न माना है और कहा है कि यह नयी पीढ़ी के मस्तिष्क पर भूत-सा छाया रहता है । आधुनिक युग में संस्कृति शब्द का कुछ ऐसा अर्थ-विस्तार हुआ है कि एक ओर वह अपने मूल से विच्छिन्न हो गया है तो दूसरी ओर ऐसे क्षेत्र में पहुंच गया है जहाँ वह अपनी सार्थकता खो बैठा है। इसमें संदेह नहीं कि ललित कलाएं संस्कृति-निर्माण में सहायक होती हैं किंतु आजकल जिस प्रकार सांस्कृतिक कार्यक्रम शब्द का प्रयोग होने लगा है वह एक सीमित कलात्मक प्रदर्शन है । संस्कृति कलाओं तक सीमित नहीं है । संस्कृति का व्यक्ति और समाज के मानसिक तथा आध्यात्मिक विकास के साथ गहरा संबंध है । संस्कृति किसी बाह्य प्रदर्शन तक चाहे वह कलात्मक (नृत्य, संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला आदि) प्रदर्शन ही क्यों न हो, सीमित नहीं है । संस्कृति का व्यक्तिसंस्कार के साथ गहरा और अटूट संबंध है। व्यक्ति को केन्द्र में रखकर उसके विकास और परिष्कार के लिए किए गए प्रयासों में संस्कृति का अन्वेषण एक सीमा तक संस्कृति की सही खोज है । भारतीय संस्कृति के मूलाधार भारतीय संस्कृति का विवेचन और विश्लेषण करने से पहले यह ध्यातव्य है कि भारत की संस्कृति एक गतिशील (डायनेमिक ) संस्कृति है । वह युग-धर्म के साथ अपने रूपाकार में परिवर्तनशील रही है अतः यह मान लेना कि वैदिक युग की, रामायण या महाभारत युग की, पौराणिक युग की बौद्धकाल की या मध्ययुग की संस्कृति ठेठ भारतीय है, भारतीय संस्कृति के मूलाधार को न समझना ही है । पंडित जवाहरलाल नेहरू ने दिनकर प्रणीत 'संस्कृति के चार अध्याय' पुस्तक की भूमिका में भारतीय संस्कृति के व्यापक रूप को स्पष्ट करते हुए लिखा है- "भारतीय जनता की संस्कृति का रूप सामासिक (कंपोजिट) है और उसका विकास धीरेधीरे हुआ है। एक ओर तो इस संस्कृति का मूल आर्यों से पूर्व मोहंजोदडों आदि की सभ्यता तथा द्रविड़ों की महान् सभ्यता तक पहुँचता है, दूसरी ओर इस संस्कृति पर आर्यों की बहुत गहरी छाप है जो भारत में मध्य एशिया से आए थे। पीछे चलकर यह संस्कृति उत्तर-पश्चिम से आने वाले तथा फिर समुद्र की राह से आने वाले लोगों से बार-बार प्रभावित हुई । इस प्रकार हमारी राष्ट्रीय संस्कृति ने धीरे-धीरे बढ़कर अपना आकार ग्रहण किया। इस संस्कृति में समन्वयन तथा नये उपकरणों को पचाकर आत्मसात् करने की अद्भुत क्षमता है ।" इस लम्बे उद्धरण से स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति का इतिहास जितना पुराना है, उतने ही उपकरणों का वैविध्य भी इस में है । इस संस्कृति को विश्व के सभी राष्ट्रों से भिन्न एवं उदात्त माना जाता है। इसे सभी विद्वानों ने उदार संस्कृति की संज्ञा दी है। 'हिन्दू व्यू आफ लाइफ' पुस्तक में डा० राधाकृष्णन ने लिखा है कि "हिन्दू धर्म ने बाहर से आने वाली जातियों तथा आदिवासियों के देवी-देवताओं को स्वीकार कर अपना देवी-देवता मान लिया। ईरानी, हूण, शक, कुषाण, पार्थियन, बैक्ट्रियन, मंगोल, सीथियन तुर्क, ईसाई, यहूदी, पारसी सभी भारतीय संस्कृति के महासागर में विलीन हो गए— ठीक वैसे ही जैसे छोटी नदियां और नद समुद्र में आकर विलीन हो जाते हैं ।" इसलिए भारतीय संस्कृति का काल निर्धारण करना या उसे किसी एक युग विशेष की देन ठहराना समीचीन नहीं है। वांछनीय एवं अभ्युदयमूलक परिवर्तनों को ग्रहण करना भारतीय मनीषा की अपनी विशेषता है। यदि ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में भारतीय संस्कृति का अनुशीलन किया जाए तो ज्ञात होगा कि इसमें युगानुरूप संशोधन, परिवर्तन, परिमार्जन होते रहे हैं और उस काल की विशिष्ट देन को यह संस्कृति सहेजकर आत्मसात करती रही है। इसीलिए इसे सामासिक संस्कृति, अनेकता में एकतामूलक संस्कृति, सामंजस्य और समन्वय की संस्कृति कहा जाता है। इस प्रकार के विशेषण विश्व के किसी अन्य राष्ट्र की संस्कृति के साथ प्रयुक्त नहीं होते । भारतीय संस्कृति को समझने के लिए उसके ऐक्यमूलक सिद्धांत को समझना होगा । भारत विशाल देश है । विविध वर्णों और जातियों का देश है। विविध भाषाओं तथा धर्म-संप्रदायों का देश है। विविध रीति-रिवाजों तथा विविध वेषभूषाओं का देश है; फिर जैन इतिहास, कला और संस्कृति Jain Education International For Private & Personal Use Only ११ www.jainelibrary.org

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