Book Title: Sanskruti ka Swarup Bharatiya Sanskrut aur Jain Sanskruti
Author(s): Vijayendra Snataka
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 8
________________ आज तक समय के थपेड़ों को सहिष्णु होकर झेलता चला आ रहा है और उसकी संस्कृति अक्षुण्ण बनी हुई है। भारतीय संस्कृति का यह एक सुदृढ़ आधार है। भारतीय संस्कृति को समझने के लिए इसे तदाकार कर ही समझना होगा / जैन संस्कृति का समग्र अवदान तो साहित्य, धर्म, दर्शन, कला, भाषा, इतिहास, पुरातत्त्व आदि सभी क्षेत्रों में देखा जा सकता है। समस्त भारत में जैन धर्म के असंख्य अनुयायी हैं और प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में इस प्राचीन धर्म के ग्रंथ पाये जाते हैं जिनके आधार पर हम जैन संस्कृति के व्यापक महत्त्व को समझ सकते हैं। संक्षेप में, विश्व संस्कृति का इतिहास मनुष्य के निर्माण का इतिहास है। इसमें कोई संदेह नहीं कि आधुनिक युग की वंज्ञानिक एवं तकनीकी प्रगति ने संस्कृति को व्यापक आयाम देकर आगे बढ़ाया है। ज्यों-ज्यों ज्ञान-विज्ञान के नये क्षेत्र खुलेंगे-मनुष्य की बुद्धि, जिज्ञासा और चेतना का प्रसार होगा और संस्कृति की दिशा में भी मनुष्य को अधिक सक्रिय होना पड़ेगा। किन्तु मानव को सतर्क रहकर यह भी देखना होगा कि वैज्ञानिक विकास की यह प्रक्रिया मात्र बौद्धिक ही न बने मनुष्य की संवेदनशील रागात्मिका वृत्ति से इसका संबंध टूटे नहीं। विज्ञान के आविष्कारक यदि अणुबम और हाइड्रोजन बम बनाने में लगे रहें तो मानव-संस्कृति के कलंक नागासाकी और हिरोशिमा के बीभत्स और भीषण दृश्य पुनः उपस्थित हो सकते हैं। भारतीय संस्कृति इसीलिए युद्ध को भी धर्म-युद्ध की संज्ञा देती रही है। ऐसी संज्ञा अन्यत्र कहीं नहीं है। मानव और दानव की संस्कृति में भेद मानती रही है। निरीह, निहत्थे, निरस्त्र, निरपराध मनुष्यों पर बम-वर्षा केवल असंस्कृत कर्म ही नहीं, अमानवीय भी है। अतः भारतीय संस्कृति ज्ञान-विज्ञान के रचनात्मक विकास में आस्था रखते हुए 'जियो और जीने दो' में विश्वास रखती है। हम मृत्यु-पूजक नहीं हैं, हम दूसरे का धन छीनने का स्वप्न नहीं देखते / ‘मा गृधः कस्यस्विद्धनम्' हमारा मंत्र है। अहिंसा, अपरिग्रह, शांति और संतोष हमारी दिनचर्या है। आत्मा की अमरता में हमारा विश्वास है। हम प्राणिमात्र के सुख की कामना करते हैं। महापुरुषों का सम्मान हमारी संस्कृति में सर्वोच्च स्थान पाता है। ‘महाजनो येन गत: स पंथाः' इसीलिए कहा गया है कि हम मनीषियों का आदर करते हैं / हमने किसी ईसा मसीह को सूली पर नहीं चढ़ाया, किसी सुकरात को जहर का प्याला नहीं पिलाया, किसी गेलीलियो की आँखें नहीं फोड़ी। यदि हमें कहीं आसुरी वृत्ति के विरोध में खड़ा होना पड़ा तो युद्ध-क्षेत्र में उस असुर का सामना किया और उसे परास्त किया है। _ हम मानव को सर्वश्रेष्ठ मानते हुए उसके सांस्कृतिक विकास के लिए साहित्य, दर्शन, विज्ञान, कला और शिल्प को आवश्यक मानते हैं। हम समस्त संसार को सुसंस्कृत एवं सभ्य देखना चाहते हैं। हमारा विश्वास है कि विश्व का सांस्कृतिक विकास ही विश्वशांति, विश्व-मैत्री और विश्व-ऐक्य की सरणि है। किसी जड-परंपरा में हम मढ आस्था नहीं रखते / रूढिवादिता और अंधविश्वासों 'मृत्योर्माऽमृतं गमय' उसी लालसा के उद्घोष हैं। 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' केवल सूक्ति ही नहीं, जीवन-सरणि है। अपने विचारों और विश्वासों में आस्था का भी हमारे यहाँ स्थान है। 'स्वधने निधनं श्रेयः' इसीलिए सद्धर्म की नीति है। प्रसिद्ध मनीषी इमर्सन ने कहा है-"अपने विचार में आस्था या विश्वास रखना, यह विश्वास रखना कि जो तुम्हारे अपने हृदय के लिए सत्य है वह सब मनुष्यों के लिए सत्य है-यही प्रतिभा है।" हमारी संस्कृति में इस प्रतिभा की स्वीकृति ही नहीं, वरण है। इसी प्रतिभा से रूढ़ियों का दबाव हटता है और यही प्रतिभा मनुष्य-समाज को उच्चतर भूमिका की ओर अग्रसर करती है। उच्चतर भूमिका की ओर अग्रसर होना ही संस्कृति के मार्ग की ओर बढ़ना है। 'सहिष्णुता, उदारता, सामासिक संस्कृति, अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और अहिंसा-ये एक ही सत्य के अलगअलग नाम हैं। असल में यह भारतवर्ष की सबसे बड़ी विलक्षणता का नाम है, जिसके अधीन यह देश एक हुआ है और जिसे अपनाकर सारा संसार एक हो सकता है। अनेकान्तवादी वह है जो दुराग्रह नहीं करता। अनेकान्तवादी वह है जो दूसरों के मतों को भी आदर से देखना और समझना चाहता है। अनेकान्तवादी वह है जो अपने पर भी संदेह करने की निष्पक्षता रखता है। अनेकान्तवादी वह है जो समझौतों को अपमान की वस्तु नहीं मानता। अशोक और हर्षवर्धन अनेकान्तवादी थे, जिन्होंने एक धर्म में दीक्षित होते हुए भी सभी धर्मों की सेवा की। अकबर अनेकान्तवादी था, क्योंकि सत्य के सारे रूप उसे किसी एक धर्म में दिखाई नहीं दिए एवं सम्पूर्ण सत्य की खोज में वह आजीवन सभी धर्मों को टटोलता रहा / परमहंस रामकृष्ण अनेकान्तवादी थे, क्योंकि हिन्दू होते हुए भी उन्होंने इस्लाम और ईसाइयत की साधना की थी। और, गांधीजी का तो सारा जीवन ही अनेकान्तबाद का उन्मुक्त अध्याय था / वास्तव में भारत की सामासिक संस्कृति का सारा दारोमदार अहिंसा पर है, स्याद्वाद और अनेकान्तवाद की कोमल भावना पर है / यदि अहिंसा नीचे दबी और असहिष्णुता एवं दुराग्रह का विस्फोट हुआ, तो वे सारे तानेबाने टूट जायेंगे जिन्हें इस देश में आनेवाली बीसियों जातियों ने हजारों वर्ष तक मिलकर बुना है।" -रामधारीसिंह 'दिनकर' ('एई महामानवेर सागर-तीरे' से) आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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