Book Title: Sanskruti ka Swarup Bharatiya Sanskrut aur Jain Sanskruti
Author(s): Vijayendra Snataka
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 6
________________ स्वीकार किया । भारतीय संस्कृति में अनासक्त भाव से कर्म करने का विधान है। गीता के द्वारा यह अनासक्ति योग बहुत अधिक मान्य हुआ और अन्य धर्मावलम्बियों के लिए भी कर्म का प्रेरक तथा कर्मफल से अनासक्त बनाने में सहायक हुआ । निष्काम कर्म की भावना को हम भारतीय संस्कृति की महान् देन कह सकते हैं । विश्व के किसी देश की संस्कृति में इस प्रकार की कर्म-प्रेरणा उपलब्ध नहीं होती । सी० ई० एम० जोड के शब्दों में- "मानव जाति को भारतवासियों ने जो सबसे बड़ी चीज वरदान के रूप में दी है, वह यह है कि भारतवासी हमेशा ही अनेक जातियों के लोगों और अनेक प्रकार के विचारों के बीच समन्वय स्थापित करने को तैयार रहे हैं, और सभी प्रकार की विविधताओं के बीच एकता कायम करने की उनकी योग्यता और शक्ति अप्रतिम रही है ।" भारतीय दर्शन आत्मदर्शन है— पाश्चात्य दर्शन भौतिकता का दर्शन, अतः उसका सांस्कृतिक आधार भी वैसा ही है । भारतीय जन की प्राचीन काल में चतुर्वर्ग फल प्राप्ति (धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष) की इच्छा रहती थी। दार्शनिक शब्दों में इसे 'पुरुषार्थ-चतुष्टय कहा गया है। यह पुरुषार्थ-चतुष्टय साहित्य और कला में भी अभिव्यक्ति पाता रहा । जीवन और मृत्यु के सम्बन्ध में भी भारतीय संस्कृति द्विधाग्रस्त नहीं है । शरीर के प्रति मोह को इस संस्कृति में स्थान नहीं मिला, किन्तु साथ ही नीरोग और स्वस्थ शरीर से शतायु होने की कामना पाई जाती है। 'जीवेम शरदः शतम्' इसी कामना का उद्घोष है सुख-दुख में समान रहने का उपदेश तो गीता में है, किन्तु भारतीय महाकाव्यों के नायक उसे परितार्थ करते हैं। रामायण का नायक रामचन्द्र पुरातन संस्कृति का जीवन्त प्रतीक है। सिंहासनारूढ़ होने का सुख उसे मोहित नहीं करता - वनवास की आज्ञा भी उसके लिए दुःख का कारण नहीं है। दोनों स्थितियों को वह समान रूप से स्वीकारता है। भारत के महाकाव्यों में, लोककथाओं में, पौराणिक आख्यानों में जो महापुरुष सहस्रों शताब्दियों से जीवित हैं, उनमें हरिश्चन्द्र, दधीचि, शिवि, बलि, रामचन्द्र, कृष्णचंद्र युधिष्ठिर भगवान् गौतम बुद्ध और भगवान् महावीर स्वामी आदि का नाम संस्कृति के किसी न किसी एक विशेष गुण के कारण ही है । 3 अहिंसा, करुणा, मैत्री, मुदिता और विनय को सुसंस्कृत व्यक्ति के लिए केवल जैन और बौद्ध धर्म में ही नहीं, सभी भारतीय धर्मो में अनिवार्य माना गया है। अहिंसा और जीव-दया इसी कारण संस्कृति का अंग बन गईं। किन्तु जब विभिन्न देशों और विभिन्न धर्मावलंबियों का भारत में आगमन और समंजन हुआ, इन तत्त्वों में यथाभिलषित परिवर्तन भी आए। परिवर्तन भविष्य में भी होंगे, इस संभावना को हम निरस्त नहीं कर सकते ; किन्तु भारतीय संस्कृति उन परिवर्तनों में अपना स्वरूप विलीन नहीं करेगी। इन परिवर्तनों को हम भारतीय संस्कृति की प्रतिभा के अलंकरण ही मानते हैं जिन्हें देश - कालानुसार उतारा और पहना जा सकता है । भारतीय संस्कृति पर वो तो प्राचीन काल से ही आपात होते रहे हैं किन्तु इस्लाम और ईसाई धर्म के प्रहार पूरी निष्ठुरता के साथ हुए । इन प्रहारों को झेलकर तथा इन धर्मों को अपने अंचल में समेट कर भारतीय संस्कृति जीवित रही, यही इसकी जीवंतता का प्रमाण है। ब्रिटिश शासनकाल में ही पुनर्जागरण का समय आया । उसी पुनर्जागरण में राजा राममोहन राय, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द, महात्मा गांधी और रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे व्यक्ति उत्पन्न हुए और उन्होंने भारतीय संस्कृति की मूल धारा को अक्षुण्ण रखा। इस युग के इन महापुरुषों ने संस्कृति को अधिकाधिक उदार बनाने का ही प्रयास किया धार्मिक सहिष्णुता का परिचय देकर संकीर्ण मनोवृत्ति से बचाये रखा। जैन संस्कृति की आधारशिला जैन धर्म भारत का प्राचीन धर्म है जिसका मूल प्रवर्तन प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के द्वारा हुआ। प्रथम तीर्थंकर का काल अनिर्णीत है । उनके और चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर के बीच काल की दृष्टि से कितना अन्तराल है, यह भी निश्चित नहीं है । भगवान् महावीर को जैन धर्म का प्रवर्तक मानने की भूल इसी कारण होती है कि उनसे पूर्व उत्पन्न तेईस तीर्थंकरों का क्रमबद्ध इतिवृत्त सुलभ नहीं है किन्तु उनके नाम प्राचीन साहित्य में उपलब्ध हैं भगवान् महावीर ने जैन धर्म में युगानुरूप कान्तिकारी परिवर्तन किये और एक प्रकार से जैन धर्म को भारतीय चिन्तन धारा में प्रमुख स्थान पर नवीन दर्शन और ज्ञान के साथ ला खड़ा किया । भगवान् महावीर का युग अनेकं दृष्टियों से अन्तर्विरोधों तथा घात-प्रतिघातों से पीड़ित था । उस युग में युद्ध संघर्ष के साथ हिंसा को कर्मकांड में भी स्थान मिल गया था। फलतः मानव मूल्यों में भी प्रतिक्रियावादी दृष्टि प्रमुख हो गई थी । जैन धर्म की पुनः स्थापना या व्यापक प्रचार की दृष्टि से पुनरुत्थान के बाद जो नवीन दर्शन और सांस्कृतिक मूल्य स्थापित हुए, उनका महत्त्व निर्विवाद रूप से सर्वस्वीकृत है। इन जीवन मूल्यों से जिस संस्कृति का चित्र उभरता है, उसे हम जैन धर्म की सांस्कृतिक देन कह सकते हैं। जिस प्रकार ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि 'आत्मसंस्कृतिर्भाव शिल्पानि' अर्थात् समस्त शिल्प आत्मसंस्कृति की अभिव्यक्ति या प्रकाश है, उसी प्रकार जैनाचार के समस्त नियम और उपदेश जैन संस्कृति की अभिव्यक्ति हैं। जैन धर्म में लोक-जीवन के परिष्कार के लिए जो साधन स्वीकार किये गये, उनमें जनसम्पर्क को प्रमुख स्थान दिया गया। जनसम्पर्क के लिए लोक आचायरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ १४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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