Book Title: Sanskrut Jain Vyakaran Parampara
Author(s): Geharilal Sharma
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 14
________________ ३५६ कर्मयोगी केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड किया पर अन्य कायों में व्यस्त होने से इसे वे पूरा न कर सके। इसे पूरा करने का कार्य वि० सं० १९६५ में मुनि श्री धनराज जी तथा मुनि श्री चन्दनमल जी दोनों विद्वानों ने पूरा किया। २. भिक्षुधातुपाठ इस कार्य को मुनि श्री चन्दनमलजी ने वि० सं० १९८६ में पूरा किया था। इसमें कुल २००२ धातुओं का संग्रह गण के क्रम से किया गया है। ३. भिक्षुन्यायदर्पणलघुवृत्ति यह भिक्षुशब्दानुशासन के १३५ सूत्रों की लघुवृत्ति है। इसकी हस्तलिखित प्रतिलिपि सर्वप्रथम मुनिश्री तुलसीराम जी ने (आचार्य तुलसी) ने वि० सं० १९८६ में मार्गशीर्ष शुक्ला द्वितीया को रतनगढ़ में पूरी की। ४. भिक्षुन्यायदर्पण बृहद्वृत्ति इस ग्रन्थ में १३५ न्यायों पर विस्तृत वृत्ति है। इसकी रचना मुनिश्री चौथमल जी ने की है। उन्होंने वि० सं० १६६४ के भाद्र शुक्ला ३ को इसको पूरा किया। ५. भिक्षुलिंगानुशासन सवृत्तिक १५७ श्लोकात्मक यह ग्रन्थ विभिन्न छन्दों में लिखा गया है। इन श्लोकों के वृत्तिकार मुनिश्री चांदमल जी हैं वृत्ति का कार्य विक्रम संवत् १९६७ ज्येष्ठ शुक्ला ६ को पूर्ण हुआ था। ६. कारिकासंग्रहवृत्ति भिक्षुशब्दानुशासन के सूत्रों में जो कारिकाएँ आई हैं, उनकी वृत्ति इस ग्रन्थ में लिखी गई है। इसकी प्रतिलिपि मुनिश्री नथमलजी ने विक्रम संवत् १९९७ श्रावण ६ गुरुवार को लाडनूं में की थी। ७. कालुकौमुदी __यह ग्रन्थ भिक्षुशब्दानुशासन का लघु प्रक्रिया ग्रन्थ है । इसकी रचना भी मुनिश्री चौथमलजी ने ही की। विक्रम संवत् १९६१ आश्विन कृष्णा १० बुधवार को जोधपुर में यह ग्रन्थ पूरा हुआ था। प्रशस्तिश्लोक इस प्रकार है तत्पादाब्जप्रसादेन, बालाजपमादेन. भैक्षुशब्दानुशासनी । मुनिना चौथमल्लेन, कृतेयं कालुकौमुदी ॥६॥ भू निधि निधि चन्द्र ऽब्दे पुष्ये, जोधपुरे दशमी बुधदिवसे । आश्विनमासे कृष्णपक्षे, पूर्णाकालुगणेन्द्रसमक्षे ।।७।। इस ग्रन्थ की विशेषताओं पर मुनि श्रीचन्द कमल ने विस्तारपूर्वक विचार किया है।' जैनेतर संस्कृत व्याकरणों पर जैनाचार्यों को टीकाएँ ऊपर किये गये प्रयास से यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृत वाङ्मय में व्याकरणशास्त्र के क्षेत्र में जैनाचार्यों का योगदान एक महत्त्वपूर्ण निधि है । इन्होंने स्वतन्त्र व्याकरणशास्त्रों का प्रणयन किया और इन पर टीका-ग्रन्थों की रचना भी की। इसके साथ ही इन आचार्यों ने उन संस्कृत के व्याकरणों पर भी टीका-ग्रन्थों की रचना की जो जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत नहीं हैं। अग्रिम पंक्तियों में इन्हीं ग्रन्थों का सामान्य परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है १. मुनि श्रीचन्द कमल : भिक्षुशब्दानुशासन : एक परिशीलन, संस्कृत-प्राकृत-जैन व्याकरण और कोश परम्परा पृ० १५०-१६३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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