Book Title: Sanskrut Jain Vyakaran Parampara
Author(s): Geharilal Sharma
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 1
________________ संस्कृत-जैन-व्याकरण-परम्परा डॉ० गेहरीलाल शर्मा [प्रवक्ता-संस्कृत, राजकीय उ० मा० विद्यालय, लोहारिया, जिला-बांसवाड़ा (राजस्थान)] भारत में व्याकरण शास्त्र के अध्ययन और अध्यापन की जड़ें बहुत गहरी हैं। यहाँ पर व्याकरण की शिक्षा को सदैव ही प्रमुख स्थान मिलता रहा है। शास्त्र की अनेक शाखाओं में व्याकरण को प्रधान माना गया है--'प्रधानं च षडङ्गषु व्याकरणम् ।' व्याकरण शब्द का अर्थ स्पष्ट करने के लिए उसकी यह परिभाषा प्रसिद्ध है--'व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दा: अनेन इति व्याकरणम् ।' अर्थात् जिसके द्वारा प्रकृति और प्रत्यय को अलग-अलग करके शब्द की व्युत्पत्ति का ज्ञान किया जाय, वह व्याकरण है। जब से भाषा का प्रारम्भ हुआ, तब से उसके नियमों व उपनियमों के ज्ञाता विद्वान् भी रहे हैं। जिस प्रकार पाणिनि संस्कृत-व्याकरण-शास्त्र के जनक माने जाते हैं, उसी तरह जैनाचार्यों ने भी व्याकरण शास्त्र के क्षेत्र में अनेक नई उद्भावनाएँ प्रस्तुत की हैं । प्राकृत में लिखे गये आगम ग्रन्थों में यत्र-तत्र प्राकृत व्याकरण के नियमों का उल्लेख मिलता है । आचारांगसूत्र में एकवचन, द्विवचन एवं बहरचन, स्त्रीलिंग, पुल्लिग एवं नपुंसकलिंग तथा वर्तमान, भूत एवं भविष्यत् काल के वचनों का उल्लेख है। यथा समियाए, संजए, भासं, भासेज्जा, तं जहा—एगवयणं, बहुवयणं, इत्थीवयणं, णपुंसगवयणं, पच्चक्खवयणं, परोक्खवयणं॥ —आयार चूला, ४.१, सूत्र ३. स्थानांगसूत्र में आठ कारकों का सोदाहरण निरूपण है । यथा अट्ठविहा वयणविभत्ती पण्णत्ता, तं जहाणिद्दे से पढमा होई, बितिया उवएसणे । तइया करणम्मि कया, चउत्थी संपदावणे ॥१॥ हवइ पुण सत्तमी तंमि, मम्मि आहारकालभावे य । आमंतणी भवे अट्ठमी, उ जह हे जुवाणत्ती ॥६॥ -स्थानांगसूत्र, अष्टमस्थान, सूत्र ४२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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