Book Title: Sanskrut Jain Vyakaran Parampara
Author(s): Geharilal Sharma
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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___ कातन्त्र न्याकरण पर टीकाएँ कातन्त्र व्याकरण के जैनेतर होने पर भी अध्ययन-अध्यापन की दृष्टि से इसका बहुत प्रभाव रहा है । यह प्रत्येक क्षेत्र में वैयाकरणिक अध्ययन दृष्टि से प्रिय ग्रन्थ रहा है। अनेक जैनाचार्यों ने इस पर टीकाओं की रचना की। प्रस्तुत प्रकरण की सीमाओं के अन्तर्गत उनका संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है-- कातन्त्रदीपक
यह ग्रन्थ मुनीश्वरसूरि के शिष्य हर्ष मुनि द्वारा रचित है। मंगलाचरण लेखक के गुरु का नाम, ग्रन्थ लिखने का प्रयोजन आदि निम्न पद्यों से स्पष्ट होते हैं। प्रारम्भ का पद्य
भूर्भुवः स्वस्त्रयीशानं, वरिवस्यं जिनेश्वरम् ।
स्मृत्वा च भारती सम्यग, वक्ष्येकातन्त्रदीपकम् ॥ अन्त में
श्री मुनीश्वर सूरिकं शिष्येण लिखितोमुदा । मुनि हर्षमुनीन्द्रेण नाम्नाकातन्त्रदीपकः ।
व्यलेखि मुनिहर्षाख्यैर्वाचेकैर्बुद्धिवृद्धये ।। कातन्त्ररूपमाला
यह ग्रन्थ प्रक्रिया क्रम से कातन्त्र सूत्रों की व्याख्या है। वादीपर्वतवज्री मुनीश्वर भावसेन ने मन्दधी बालकों को कातन्त्र व्याकरण का सरलतया बोध करने के लिये इसकी रचना की। यह ग्रन्थ निर्णयसागर यन्त्र बम्बई तथा वीर पुस्तक भण्डार जयपुर से प्रकाशित है। कातन्त्रविस्तर
यह ग्रन्थ कातन्त्र व्याकरण की विस्तृत टीका है। वि० सं० १४४८ के आसपास इसकी रचना वर्धमान ने की थी। इसका कारकभांगीय कुछ अंश मंजूषापत्रिका (वर्ष १२, अंक ९) में प्रकाशित है। इसकी अनेक हस्तलिखित प्रतियाँ विभिन्न साहित्य-भण्डारों में उपलब्ध हैं। यह ग्रन्थ बहुत प्रसिद्ध रहा होगा। इसी कारण इस पर अनेक टीकाएँ भी लिखी गई। कातन्त्रपंजिकोद्योत
वर्धमान के शिष्य त्रिविक्रम ने इस ग्रन्थ की रचना की। रचना-काल वि० सं० १२२१ ज्येष्ठ वदी, तृतीया शुक्रवार है। रचना का उद्देश्य कातन्त्रपंजिका पर किये गये असारवचनों को निःसार करना है। इसका हस्तलेख संघभण्डार पाटन में संग्रहीत है। कातन्त्रोत्तरम्
इसकी रचना विजयानन्द ने की। यह टीका ग्रन्थ है । इसका हस्तलेख लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर अहमदाबाद में सुरक्षित है । ग्रन्थ-रचना का उद्देश्य प्रतिपद्यों के आक्षेपों का समाधान है। कातन्त्रभूषणम
__ आचार्य धर्मघोषसूरि ने कातन्त्र व्याकरण के आधार पर इस ग्रन्थ की रचना की है, ऐसा बृट्टिपणिका में उल्लेख है।
१. संस्कृत-प्राकृत-जैन-व्याकरण और कोश परम्परा, पृ० ११३. २. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ५, पृ० ५३.
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