Book Title: Sangit Samaysar ke Sandarbh me Gayak Gan Dosh Vivechan Author(s): Vachaspati Moudgalya Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 5
________________ (४) रागरागाङ्गभाषाङ, गक्रियांगोपांगकोविद : "राग" पद को सामान्यतः रंजन करने वाला राग है ( रंजनाद्रागः ) इस लक्षण से अभिहित किया गया है । बृहद्देशीकार आचार्य - मतङ्ग द्वारा कृत "राग" की शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार - "स्वरों तथा वर्णों (गान क्रिया) आदि से विभूषित जनचित्तरंजक ध्वनिविशेष को राग कहा गया है ।" "रञ्जन करने के कारण राग है" यह इसका व्युत्पत्तिसभ्य अर्थ है ।' आचार्य पार्श्वदेव के अनुसार :-- "सज्जन उसे राग मानते हैं जो स्वरवर्णादि के वैशिष्ट्य अथवा ध्वनिभेद के कारण सज्जनमनोरंजन कर सके। "रागाङग" पद मूल रागों के अवययैकदेश का वाचक है क्योंकि इनमें ग्रामप्रकरण में उक्त रागों की छायामात्र दृष्टिगोचर होती है ।"" "जिसमें समान भाषाओं की छाया का आश्रय कर लिया जाता है वह स्तुतिकारादिकों के द्वारा गेय "भाषाङ्ग" कहे जाते हैं । * वास्तव में उपर्युक्त रागाङ्ग आदि सभी राग ही माने जाते हैं परन्तु इनका वर्गीकरण में भेद है राग पद से ग्रामरागों का ग्रहण किया गया अथवा मार्ग" संगीत में गाए जाने वाले मूलराग राग" इस अभिधा से अभिहित है जबकि रागाङ्ग आदि इन रागों पर आश्रित होते हैं परन्तु इनके ही भेद होकर यह मात्र देशी संगीत पद्धति में गाए जाते हैं।" इनको "रंजनाद्रागः " इस सामान्य परिभाषा के अन्तर्गत संनिहित करके राग माना जाता है। इसी प्रसंग में यह स्पष्ट करना भी समीचीन होगा कि मतंगाचार्य ने उपाङ्गों का अन्तर्भाव रागामों में ही करके उपागों का पृथक परिकल्पन नहीं किया है जबकि, संगीतरत्नाकरकार आचार्य 'उनकी परवर्ती परम्परा के आचार्यों ने उपाङ्गों का पृथक् परिकल्पन कर इन्हें रागभेद माना है ।" गदेव तथा इन सभी उपर्युक्त मार्गी एवं देशी रागों तथा रागभेदों के प्रयोग में निष्णात । (५) प्रबन्धगानचतुर : संगीतशास्त्र परम्परा में 'रंजकस्वर- संदर्भ वाला" गीत माना जाता है । इसके (i) गान्धर्व, तथा (ii) गान यह दो भेद माने गए हैं। (i) जो अनादिकालिक संप्रदाय-परम्परा से युक्त है, निश्चित रूप में कल्याण करता है वह गन्धर्वों द्वारा प्रयोज्य गीत "गान्धर्व" कहलाता है। इसे ही मागंगीत भी कहते हैं ।" (ii) जो वाग्वकार ( संगीत तथा भाषाविद् कवि ) के द्वारा लक्षणानुसार जनरंजनार्थ देशी रागादिकों में विरचित रचना होती है उसे "गान" कहा जाता है । इस गान के पुनः (i) निबद्धगान, तथा (ii) अनिबद्धगान के नाम से दो भेद किये जाते हैं (i) सामान्यतः भाषाबद्ध सांगीतिक रचना को निबद्धगान, तथा (ii) बन्धनहीन को अनिबद्धगान अथवा आलप्ति भी कहा जाता है । निबद्धगान के तीन नाम कहे जाते हैं (i) प्रबन्ध (ii) वस्तु, तथा (iii) रूपक । इनमें प्रबन्ध का लक्षण सर्वतः स्पष्ट रूप में संगीतसमयसार में कहा गया है। तदनुसार चतुविध पातुओं तथा विष अंगों से बांधा जाने के कारण विद्वानों ने इसे प्रबन्ध कहा है। इन चार धातुओं के नाम हैं(१) उद्ग्राह, (२) मेलापक, (३) ध्रुव, (४) आभोग, तथा छह अंगों के नाम हैं, (१) स्वर, (२) पद, (३) विरुद, (४) पाट (पाठ) (५) तेनक, (६) तान ३. जिनमें करुण, उत्साह, शोकादि से उद्भूत क्रिया होती है वह क्रियाङ्ग' तथा- गाज की छाया का अनुसरण करने वाले उपा" कहे जाते हैं। १. २. संगीतसमयसार १.५८. संगीतरत्नाकर भाग दो पृष्ठ १५ पर उद्धृत यह पद्य उपलब्ध बृहद्देशी में अनुपलब्ध हैं। तुलनीय संगीतसमयसार ४. १ ३. वही, वही रागविबोध - १.६, श्राड्यारसंस्करण १६४५. वही १.७. संगीतरत्नाकर (भाग दो) पृष्ठ १५; पृष्ठ १५५ पर उद्धृत संगीत सुधाकर टीका भी द्रष्टव्य है । वही पृष्ठ १५ । वही भाग दो पृष्ठ १५ पर कल्लिनाथी टीका । वही प्रबन्धाध्याय, २ पर कल्लिनाथी टीका । ४. ५. ६. ७. ८. ε. बृहद्देशी २८१ तथा २८३. १०. ११. जैन प्राच्य विद्याएँ Jain Education International For Private & Personal Use Only २०६ www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16