Book Title: Sangit Samaysar ke Sandarbh me Gayak Gan Dosh Vivechan
Author(s): Vachaspati Moudgalya
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 8
________________ (१५) सर्वदोषविवजितः : से रहित । (१६) यार: कल्लिनाथ एवं सिंहभूपाल इन दोनों के अनुसार क्रियापर से तात्पर्य अभ्यासलग्न गायक से है जो सदा अभ्यास करने में त्यक्तालस्य हो परंतु आचार्य सिंहभूपाल ने इस विषय को अधिक स्पष्ट करते हुए संगीतसमयसार का भी उद्धरण देते हुए कहा है कि :" मार्गी तथा देशी द्विविध संगीत का शास्त्रानुसार निर्दोष गायन करने वाला क्रियापर है । वास्तव में तो अभ्यास के बिना व्यक्ति संसार में साधारण पठन-पाठन में भी क्रमशः जडत्व को प्राप्त करता जाता है फिर संगीत जैसी नादब्रह्मात्मक विधा का तो कहना ही क्या है । इसमें तो अभ्यास ही सर्वप्रकारक पाण्डित्य अथवा चातुर्य का मूल है, परन्तु कल्लिनाथ तथा संगीतसमयसार इन दोनों के द्वारा प्रस्तुत "क्रियापर" पद की व्याख्या में मूलभूत अन्तर है। यदि शब्द से उद्भूत व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ का ग्रहण किया जाय तो "क्रियायां पर:" इस विग्रह से किया अर्थात् गायन किया में सदा लीन यह कल्लिनाथाभिमत अर्थ ही अधिक संगत प्रतीत होगा। अस्तु क्रियापर होना सुगायन माना जाता है इसमें कोई विवाद नहीं है । (१७) मुक्तलय : संगीतशास्त्र में ताल को कालक्रियामान अर्थात् काल या समय की गति का मापन कहा जाता है (१) यह मनगत, तथा (२) हस्तगत भेदों से द्विविध है। काल का मापन करने के लिये प्रत्यक्षतः हस्तगत क्रिया का आलम्बन मृदङ्गादि के द्वारा अथवा मात्र हस्त से ही किया जाता है । हस्त के आघातों में जो अन्तराल बन जाता है उसे लय कहते हैं क्योंकि वह दो आघातों के अन्दर लीन हो जाता है इसके तीन भेद हैं। (१) दूत, (२) मध्य एवं (२) विलम्बित “युक्तलय" पद के शब्दार्थका विवेचन करने पर जो लय में 'युक्त अर्थात् जुटा हुआ है अथवा लय से युक्त है यह सामान्यार्थ प्राप्त होता है जिसके अनुसार सर्वविध तालगति में निष्णात गायक युक्तलय माना जायगा । परन्तु सिंहभूपाल के अनुसार "गायक की प्रसिद्धि से रंजनकारी गायन” युक्तलयता का तात्पर्य है । विचार करने पर इससे उपर्युक्त शाब्दिक अर्थ की संगति इस प्रकार बैठती है कि जो गायक विभिन्न कालगतियों अर्थात् लयों (दोगुण तिगुन आदि) का प्रदर्शन अत्यंत निष्णातता से एवं प्रसिद्ध यनुसार करे वह "युक्तलय" गुणान्वित गायक कहा जायेगा । प्रायः शास्त्रकारों ने गायन में पच्चीस दोष माने हैं वे संदष्ट उद्घष्ट आदि दोष आगे वर्णित किए जायेंगे उन सर्वविध दोषों (१८) सुघट : जिस भी विधि से गायन में सौन्दर्य आ सके ऐसा प्रयत्न करने वाला सुघट कहलाता है। इसे ही भाषा में "सुघड़" कहते है ।" कल्लिनाथ के इस मान्य अर्थ के अतिरिक्त संगीतसमयसार का शास्त्रीय पक्ष भी देखना उचित होगा जिसके अनुसारवह गायक जो स्वर, वर्ण तथा ताल इन तीनों गीत के अंगों को स्पष्ट रूप से घटित व्यक्त करता है तथा सुन्दर ध्वनि से युक्त कण्ठ वाला (हृद्यशब्दः) भी होता है ।" तत्त्वतः इन दोनों मतों में कोई अन्तर नहीं । संगीतसमयसार में सुघटत्व में वांछनीय सुन्दरध्वनि को संगीतरत्नाकर में हृदयशब्दत्व के द्वारा पहले ही कहा जा चुका है। मूल बात तो गायन के सुन्दर रूप से संघटन की है जो दोनों मतों में समान है । (१९) धारणान्वित: १. संगीतरत्नाकर भाग दो पृष्ठ १५४ तथा १५५. २. वही, पृष्ठ १५५. ३. सुलनीय संगीतसमयसार, ६.५६ उत्त०, ५७ पूर्वार्धं । ४ ७. ८. धारणा शक्ति का संगीतशास्त्रीय अर्थ संगीतसमयसारकृत् आचार्य पाश्वदेव ने निम्न प्रकार से दिया है कि संगीतसमयसार ८.२. ५. वही, ८, १७. ६. संगीतरत्नाकर भाग दो, पृष्ठ १५५. वही, पृष्ठ १५४, कल्लिनाथी टीका । संगीतसमयसार, ६.५६-६०. २१२ Jain Education International आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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